'श्रीमच्चन्दनवृक्ष सन्ति बहवस्ते शाखिनः कानने
येषां सौरभमात्रकं निवसति प्रायेण पुष्पश्रिया ।
प्रत्यङ्गं सुकृतेन तेन शुचिना ख्याताः प्रसिद्धात्मना
योऽसौ गन्धगुणस्त्वया प्रकटितः क्वासाविह प्रेक्ष्यते ।
राजा स्वस्तुति बुद्ध्या लक्षं ददौ।
तव दामोदर कवि ने चंदन खंड के व्याज से राजा की स्तुति की-
हे शोभावान् चंदन वृक्ष, जंगल में ऐसे बहुत से वृक्ष हैं, जिनकी कुसुमश्री में ही सुगंध रहा करती है, परन्तु यह जो स्वयं प्रसिद्ध पवित्र पुण्यकृत्य के कारण विख्यात सुगंध रूपी गुण अपने प्रत्येक अङ्ग से तुमने प्रकट किया है। वह अन्य वृक्षों में कहाँ दीखता है ?
राजा ने अपनी प्रशंसा को समझ कर ( दामोदर कवि को) लाख मुद्राएँ दीं।
ततो द्वारपाल आगत्य प्राह--'देव, काचित्सूत्रधारी स्त्री द्वारि यतते । राजा'प्रवेशय । ततः सागत्य राजानं प्रणिपत्याह-
'बलिः पातालनिलयोऽधः कृतचित्रमत्र किम् ।
अधः कृतो दिविस्थोऽपि चित्रं कल्पद्रमस्त्वया ॥ २२१ ।।
राजा तस्य प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ।
तदनंतर द्वारपाल आकर बोला-'महाराज, कोई सूतवाली स्त्री द्वार पर विद्यमान है। राजा ने प्रविष्ट कराने की माज्ञा दी। तब वह आकर राजा को प्रणाम करके बोली-
महाराज, आपने ( दान वर के दानी) पाताल वासी बलि को नीचे कर दिया, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं ( वह तो स्वयं नीचे बसे लोक पाताल का निवासी है हो); आश्चर्य की बात यह है कि अपने तो ऊपर के लोक स्वर्ग में स्थित कल्पवृक्ष को भी नीचा कर दिया ।
राजा ने उसे प्रत्येक अक्षर पर लक्ष मुद्राएं दी।
ततः कदाचिन्मृगयापरिश्रान्तो राजा क्वचित्सहकारतरोरधरतात्तिष्ठति स्म । तत्र मल्लिनाथाख्यः कविरागत्य प्राह-
'शाखाशतशत वितताः सन्ति कियन्तो न कानने तरवः ।
परिमलभरमिलदलिकुलदलितदलाः शाखिनो विरलाः ॥२२॥