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भोजप्रवन्धः

 तत्पश्चात् एक वार भोज के मन में आया कि मेरे समान अभिलषित प्रदान करने वाला कोई नहीं है। उसके घमंड को समझ कर मुख्य मन्त्री ने विक्रमादित्य का पुण्यपत्र भोज को दिखाया । भोजने उस पत्र में एक प्रस्ताव रखा । उसमें था-प्यास लगने के कारण विक्रमादित्य ने कहा-

 सज्जनों के चित्त के समान स्वच्छ, दीनों के कष्ट के समान हल्का, पुत्र के आलिगन के समान शीतल, और बच्चे की अटपटी बोलो के तुल्य मीठा, इलायची, खस, लौंग, चन्दन से युक्त कपूर, कस्तुरी, चमेली, गुलाब, के- तकी से सुवासित पेय लाओ।

 ततो मागधः प्राह~-

'वक्त्राम्भोज सरस्वत्यधिवसति सदा शोण एवाधरस्ते
बाहुः काकुत्स्थवीर्यस्मृतिकरणपटुदक्षिणस्ते समुद्रः ।
वाहिन्यः पार्श्वमेताः कथमपि भवतो नैव मुञ्चन्त्यभीक्ष्णं
स्वच्छे चित्ते कतोऽभूत्कथय नरपते तेऽम्बुपानाभिलाषः ॥२३०।।

तो मागध ने कहा-

 आपके मुख कमल में सरस्वती वाग् देवी के रूप में नदी सरस्वती निवास करती है, आपका शोण अर्थात् लाल अधर शोण नद ही है, आपका दक्षिण बाहु ककुत्स्थ वंशी श्री राम के पराक्रम का स्मरण कराने में दक्ष ( राम के बाहु समान बलिष्ठ ) दक्षिण समुद्र है और ये वाहिनी-सेनाएँ आपके नैकट्य को वाहिनी नदियों के तुल्य कमी छोड़ती ही नहीं है और आपका चित्त स्वच्छ है, तो है नरराज आपको जल-पान की इच्छा कहाँ से हो गयी ?

ततो विक्रमार्कः प्राह । तथाहि-

'अष्टौ हाटककोटयस्त्रिनवतिर्मुक्ताफलानां तुलाः
पञ्चाशन्मधुगन्धमत्तमधुपाः क्रोधोद्धताः सिन्धुराः।
अश्वानामयुतं प्रपञ्चचतुरं वाराङ्गनानां शतं
दत्तं पाण्ड्यनृपेण यौतकमिदं वैतालिकायार्प्य॑ताम्' ॥ २३१ ।।

ततो भोजः प्रथमत एवाद्भुतं विक्रमाक चरित्रं दृष्ट्वा निजगर्वं तत्याज ।

 तव विक्रमादित्य ने कहा-