'राजा तस्मै सुवर्णकलशत्रयं प्रादात् । रात में घुटने (घुटनों के बीच सिर रखकर ), दिन में सूर्य (धूप ) और द्विसंध्याओं (प्रातः सायम् ) में आग ( तापकर )-- इस प्रकार जानु भानु-कुशानु (घुटना, सूरज और आग ) के द्वारा मैंने शीत व्यतीत किया ।
राजाने से तीन स्वर्णकलश दिये। .
ततः कवी राजानं स्तौति-
'धारयित्वा त्वयात्मानं महात्यागधनायुषा ।'
मोचिता बलिकर्णाद्याः स्वयशोगुप्तकर्मणः' ।। २३४ ।।
राला तस्मै लक्षं ददौ।
तब कवि ने राजा की स्तुति की--
जस का धन और आयु महान् त्याग से पूर्ण है, ऐसे आपने स्वयम् को धारण करके जिनके कीर्तिकार्य गुप्त हो चले थे उन बलि और कर्ण आदि का छुटकारा दिला दिया। ( बलि और कर्णादि के कार्यों पर अविश्वास हो चला था, भोज ने स्वदान कृत्यों से उन्हें पुनर्जीवित किया।)
राजा ने उसे लक्ष मुदाएँ दीं।
एकदा क्रीडोद्यानपाल आगत्यैकभिक्षुदण्डं राज्ञः पुरो मुमोच । तं राजा करे गृहीतवान् । ततो मयूरकविर्नितान्तं परिचयवशादात्मनिराज्ञा कृतामवज्ञां मनसि निधायेक्षुमिषेणाह--
'कान्तोऽसि नित्यमधुरोऽसि रसाकुलोऽसि
किं चासि पञ्चशरकार्मुकमद्वितीयम् ।
इक्षो तवास्ति सकलं परमेकमूनं ।
यत्सेवितो भजसि नीरसतां क्रमेण' ।। २३५ ।।.
राजा कविहृदयं ज्ञात्वा मयूरं सम्मानितवान्।
एक वार क्रीडावाटिका के माली ने आकर एक गन्ना राजा के संमुख उपस्थित किया। राजा ने उसे हाथ में ले लिया । तो मयूर कवि ने अति परिचय के कारण राजा के द्वारा होती अपनी अवज्ञा को मन में रख कर गन्ने के व्याज से कहा--