पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१२७

एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति
१२२
भोजप्रबन्धः

 पुनरपि पठति कविः :-

 केचिन्मूलाकुलाशाः कतिचिदपि पुनः स्कन्धसम्बन्धभाज-

 श्छायां केचित्प्रपन्नाः प्रपदमपि परे पल्लवानुन्नयन्ति । अन्ये पुष्पाणि पाणौ दधति तदपरे गन्धमात्रस्य पात्रं

  वाग्वल्लयाः कि तु मूढाः फलमहह नहि द्रष्टुमप्युत्सहन्ते ।२५३।। कवि ने फिर पढ़ा -

 कुछ लोग वृक्ष की जड़ के लिए व्याकुल रहते हैं, कुछ तने को लेना चाहते है; कुछ छाया का ही ग्रहण करते हैं, कुछ पत्तों को तोड़ लेते हैं। कुछ अन्य फूलों को हाथों में धारण कर लेते हैं और कुछ गंधमात्र के पात्र बनते हैं; किंतु. हाय, ये मूर्ख वाणी रूपी वल्लरी के फलों को देखने के लिए भी उत्साहित नहीं होते।

एतदाकर्ण्य बाणः प्राह-

परिच्छन्नस्वादोऽमृतगुडमधुक्षौद्रपयसां
कदाचिचाभ्यासाद्भजति नन वैरस्यमधिकम् ।
प्रियाबिम्बोष्ठे वा रुचिरकविवाक्येऽप्य नवधि-
र्नवानन्दः कोऽपि स्फुरति तु रसोऽसौ निरुपमः ॥२४४॥

 ततो राजा लक्षं दत्तवान् ।

  यह सुनकर बाण ने कहा-

 अमृत, गुड़, मधु, छुहारे और दूध का स्वाद एक तो स्पष्ट नहीं है दूसरे बार-बार प्रयोग से कभी-कभी पर्यात विरस भी हो जाता है; किंतु प्रिया के बिम्बोष्ठ और रमणीयं कविं वचन में एक असीम नवीन आनंद है, उससे तो एक निरुपमेय रस का स्फुरण होता है।

 तो राजाने लाख मुद्राएँ दीं।


(१४) कालिदासभवभृत्योः स्पर्धा

  ततः कदाचित्सिंहासनमलङ्कुर्वाणे श्रीभोजे द्वारपाल आगत्य प्राह- 'देव, वाराणसीदेशादागतः कोऽपि भवभूतिर्नाम. कविर्द्वारि तिष्टति'