पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१३०

एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति
१३७
भोजप्रबन्धः

तुलायां मुमोच । ततो भवभूतिभागे लघुत्वोद्भूतामीपदुन्नतिं ज्ञात्वा देवी भक्तपराधीना सदसि तत्परिभवो मा भूदिति स्वावतंसकतारमकरन्दं वामकरनखाग्रेँण गृहीत्वा भवभूतिपत्रे चिक्षेप ।

 तो फिर समस्त कवि मंडली के साथ भोज भुवनेश्वरी देवी के मंदिर पहुंचे और उनके सान्निध्य में भवभूति के हाथ में घट देकर और दोनों श्लोक दो समान पत्रों पर . लिखकर तराजू में रख दिये । तभीफिर भवभूति वाले भाग को हलकेपन के कारण कुछ ऊंचा उठा देख भक्त के अधीन देवी ने यह विचार कर कि मेरे :मक्त भवभूति की सभा में अप्रतिष्ठा न हो, अपने कर्ण फूल के कमल को मकरंद बायें हाथ के नख की कोर से लेकर भवमति के श्लोक वाले ) पत्र में डाल दीं ।

 ततः कालिदासः प्राह--

'अहो मे सौभाग्यं मम च भवभूतेश्च भणितं
घटायामारोप्य प्रतिफलति तस्यां लघिमनि ।
गिरा देवी सद्यः श्रुतिकलितकह्वार कलिका-
मधूलीमाधुर्यं क्षिपति परिपूर्त्यै भगवती' ।। २५३ ॥

 तो कालिदास ने कहा-

 अहा, मेरा सौभाग्य है कि मेरी और भवभूति की काव्योक्ति को तुला में रखने पर भवभूति की उक्ति में जब हलकापन आने लगा तो उसकी पूर्ति के लिए भगवती वाग्देवी ने तुरंत कान में पहिनी कमल कली के मकरंद के माधुर्यं को रख दिया।

 ततः कालिदासपादयोः पतति भवभूतिः । राजानं च विशेषज्ञ मनुते स्म । ततो राजा भवभूतिकवये शतं मत्तगजान्ददौ।

 तब भवभूति कालिदास के पैरों पड़ गये और राजा को विशेषज मान लिया । तो राजा ने भवभूति कवि को सौ मतवाले हाथी दिये।


(२०) दानस्य कतिपयकथा ::

 अन्यका राजा धारानगरे रात्रावेकाकी विचरन्काञ्चन स्वैरिणीं सङ्केतं गच्छत्तीं दृष्ट्वा पप्रच्छ-'देवि, का त्वम्। एकाकिनी मध्यरात्रौ क्व गच्छसि इति।