एकवार धारा नगर में एकाकी विचरण करते. राजा ने एक स्वेच्छा विहारिणी को संकेत-स्थल ( पूर्व निश्चित मिलन स्थान ) की ओर जाती देख पूछा-'हे देवी, तुम कौन हो ? आधी रात में अकेली कहाँ जा रही हो?'
ततश्चतुरा स्वैरिणी सा तं रात्रौ विचरन्तं श्रीभोजं निश्चित्य प्राह-
त्वत्तोऽपि विषमो राजन्विषमेषुः क्षमापते । ।
शासनं यस्य रुद्राद्या दासवन्मूर्ध्नि कुर्वते ।। २५४ ॥
ततस्तुष्टोराजा दोर्दण्डादादायाङ्गनदं वलयं च तस्यै दत्तवान् । सा च यथास्थानं प्राप।
तो वह चतुर इच्छाचारिणी यह निश्चय करके कि यह रात में विचरण करता राजा भोज है, उससे बोली-
हे धरती के स्वामी राजा, विषमबाण (पंचबाण कामदेव ) आपसे भी अधिक उग्र है, जिसके शासन को रुद्रादि देव दास के समान शिरोधार्य करते हैं।
संतुष्ट हो राजा ने भुजदंड से बाजूबंद और कंगन उसे दिये । और वह भी अपने. निश्चित स्थान को चली गयी।
ततो वर्त्मनि गच्छन्क्वचिद्गृह एकाकिनीं रुदतीं नारी दृष्ट्वा 'किम- र्थमर्धरात्रौ रोदिति । किं दुःखमेतस्याः।' इति विचारयितुमेकमङ्गरक्ष- कंप्राहिणोत् ।
तदनंतर मार्ग में जाते हुए किसी घर में एक अकेली स्त्री को रोती देख-'यह आधी रात को क्यों रो रही है ? इसको क्या दुःख है ?-यह विचारने के लिए एक अंगरक्षक को, भेजा।
ततोऽङ्गरक्षकः पुनरागत्य प्राह.-'देव, मया पृष्टा, यदाह तच्छृणु--
वृद्धोमत्पतिरेष मञ्चकगतः स्थूणावशेषं गृहं
कालोऽयं. जलदागमः कुशलिनी वत्सस्यं वार्तापि नो ।
यत्नात्सञ्चिततैलबिन्दुघटिका भग्नेति, पर्याकुला
दष्ट्रवा गर्भभरालसा निजवधूं, श्वश्रूश्चिरं रोदिति ॥ २५५ ॥
ततः कृपावारिधिः क्षोणीपालस्तस्यै लक्षं ददौ। ....... --