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भोजप्रबन्धः

ततः कविः पठति ~~

लक्ष्मीक्रीडातडागो रतिधवलगृहं दर्पणो दिग्वधूनां
पुष्पं श्यामालतायात्रिभुवनजयिनो मन्मथस्यातपत्रम्।
पिण्डीभूतं हरस्य स्मितसमरधुनीपुण्डरीकं मृगाङ्को
ज्योत्स्नापीयूषवापी नयति सितवृषस्तारकागोलकस्य' ।।२५६।।

राजा पुनः प्रत्यक्षरलक्षं ददौ। तो कवि ने पढ़ा--

लक्ष्मी का क्रीडा-सर चंदा या है रति का शुभ्र निवास, दिग्भामिनियों का या दर्पण, श्यामलता का फूल सुहास, त्रिभुवनजयी काम का छाता, शिव की पिंड भूत मुसकान, यह मृगांक है नील गगन में सुरगंगा के कमल समान, विमल चाँदनी की अमृत से है परिपूर्ण बावड़ी यह घूम रहा है वृषभ श्वेत ताराओं के मंडल में यह । राजा ने फिर प्रत्येक अक्षर पर लाख मुद्राएँ दी ।

एकदा कश्चिद्दूदेशादागतो वीणाकविराह- 'तर्कव्याकरणाध्नीनधिषणो नाहं न साहित्यवि-

न्नो जानामि विचित्रवाक्यरचनाचातुर्यमत्यद्भुतम् । देवी कापि विरञ्चिवल्लभसुता पाणिस्थवीणाकल- क्वाणाभिन्नरवं तथापि किमपि ब्रूते मुखस्था मम' ॥ २६० ॥

राजा तस्मै लक्षं ददौ।

 एक बार दूर देश से आये किसी वीणा कवि ने कहा-~~ तर्क, व्याकरण आदि में मेरा बुद्धि-प्रवेश नहीं है और न मैं साहित्य का

वेत्ता हूँ; अद्भुत और अनोखो वाक्य-रचना के कौशल को भी मैं नहीं जानता; तो:भी विधाता की प्रिय पुत्री कोई देवी अपने हाथ में ली वीणा की मनोहर ध्वनि के समान सुंदर शब्द मेरे मुख में स्थित हो बोलती है । राजा ने उसे लाख मुद्राएँ दीं।

वारणस्तस्य सुललितप्रबन्धं श्रुत्वा प्राह-'देव,

 मातङ्गीमिव माधुरी ध्वनिविदो नैव स्पृशन्त्युत्तमां
 व्युत्पत्ति कुलकन्यकामिव रसोन्मत्ता न पश्यन्त्यमी।