. १३२ भोजप्रबन्धः कस्तूरीघनसारसौरभसुहृद्वयुत्पत्तिमाधुर्ययो- र्योगः कर्णरसायनं सुकृतिनः कस्यापि सम्पद्यते ॥ २६१ ।। उसकी सुंदर ललित प्रबंध-रचना को सुनकर बाण ने कहा- ध्वनि वेत्ता ( काव्य की आत्मा ध्वनि को मानने वाले ) उत्तमा माधुरी ( मधुर शब्द योजना) को चांडाल कन्या के समान अस्पृश्य मानते है और ये रस के मतवाले ( रसवादी ) जैसे कोई कुलकन्या को देख भी नहीं पाता है, वैसे ही व्युत्पत्ति (प्रस्तुति ) को नही देखते; कस्तुरी और चंदन के सुगंध के संयोग के समान व्युत्पत्ति और माधुर्य-प्रस्तुति और मधुर योजना-- का कानों के रसायन ( अत्यधिक प्रिय ) सदृश योग किसी सुकृती के काव्य में हो पाता है। अन्यदा राजा सीतां प्रति प्राह-'देवि, प्रभातं व्यावर्णय' इति । सीता प्राह- 'विरल विरलाः स्थूलास्ताराः कलाविव सज्जना मन इव मुनेः सर्वत्रैव प्रसन्नमभून्नभः। अपसरति च ध्वान्तं चित्तात्सतामिव दुर्जनो ब्रजति च निशा क्षिप्रं लक्ष्मीरनुद्यमिनामिव' ॥२६२ ॥ एक अन्य बार राजा ने सीता से कहा--'हे देवि, प्रभात का वर्णन करो।' सीता ने कहा--- जैसे कलियुग में सज्जन विरल हैं, वैसे ही बड़े तारे कहीं-कहीं हैं; जैसे मुनियों का मन सर्वत्र प्रसन्न रहता है, वैसे ही सब ओर आकाश स्वच्छ है; जैसे सज्जनों के चित्त से दुष्ट व्यक्ति निकल जाता है, वैसे ही अंधकार जा रहा है और रात शीघ्रता पूर्वक उसी प्रकार जा रही है, जैसे उद्यमहीन व्यक्तियों की लक्ष्मी चली जाती है। राजा लक्षं दत्त्वा कालिदासं प्राह--'सखे सुकवे, त्वमपि प्रभात व्यावर्णय' इति । राजा ने लाख मुद्राएँ सीता को देकर कालिदास से कहा-'सुकवि मित्र, तुम भी प्रभात का वर्णन करो।' कालिदासः--
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