एक वार राजा ने यान पर चढ़कर जाते हुए मार्ग में किसी तपस्वी को
देखकर उससे कहा---'आप जैसे तपस्वियों का दर्शन भाग्याधीन होता है।
आपका ठाँव कहाँ है और भोजन के निमित्त आप किनसे प्रार्थना करते हैं ?
ततः स राजवचनमाकण्यं तपोनिधिराह--
'फलं स्वेच्छालभ्यं प्रतिवनमखेदं क्षितिरुहां |
राजन्, वयं कमपि नाभ्यर्थयामः, न गृह्णीमश्च' इति । राजा तुष्टो नमति । राजा के वचन सुनकर उस तपोधन ने कहा-
'विना कष्ट ही वृक्षों के फल वन-वन स्वेच्छा से मिल जाते; |
तत उत्तरदेशादागत्य कश्चिद्राजानं स्वस्ति' इत्याह । तं च राजा पृच्छति-'विद्वन् , कुत्र ते स्थितिः' इति ।
तदनंतर उत्तर देश से एक विद्वान ने आकर राजा से 'स्वस्ति' कहा । राजा ने उससे पूछा-'हे विद्वान्, तुम्हारा स्थान कहाँ है ?'
विद्वानाह- |
विद्वान् वोला- |