पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१४१

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भोजप्रबन्धः


 तदा राजा लक्षं दत्वा प्राह--'काशीदेशे का विशेषवार्ता' इति । स आह- 'देव, इदानीं काचिदद्भुतवार्ता तत्र लोकमुखेन श्रुता- देवा दुःखेन दीनाः' इति । राजा--'देवानां कुतो दुःखं विद्वन् ।'

 तो राजा ने लाख मुद्राएँ देकर कहा-'काशी देश का क्या विशेष समाचार है ?

 वह बोला-'महाराज, वहाँ लोगों के मुँह से इन दिनों विचित्र बात सुनी गयी है कि--देवगण दुःख से दीन हैं ।' राजा ने कहा-'हे विद्वान, देवों को कहाँ से दुःख ?'

स चाह--

निवासः क्वाध नो दत्तोभोजेन कनकाचलः ।
इति व्यग्रधियो देवा भोज वार्तेति नूतना' ॥ २७२ ॥

ततो राजा कुतूहलोक्त्या तुष्टः संस्तस्मै पुनर्लक्ष ददौ।

 वह बोला--'महाराज, यही तो नयी बात है । देवगण, व्यग्र हो विचार रहे हैं कि राजा भोज ने स्वर्ण गिरि सुमेरु का दान कर दिया, आज हम रहेंगे कहाँ ?'

 तो राजा ने इस कुतूहल पूर्ण उक्ति पर संतुष्ट हो उसे पुनः लाख मुद्राएँ दीं।

 ततो द्वारपालःप्राह--'देव, श्रीशैलादागतः कश्चिद्विद्वान्ब्रह्मचर्यनिष्ठो द्वारि वर्तते' इति । राजा-'प्रवेशय' इत्याह । तत आगत्य ब्रह्मचारी 'चिरं जीव' इति वदति । राजा तं पृच्छति--'ब्रह्मन, बाल्य एव कलिकालाननुरूपं किं नामव्रतं ते । अन्वहमुपवासेन कृशोऽसि । कस्यचिद्ब्राह्मणस्य कन्यां तुभ्यं दापयिष्यामि, त्वं चेद्गृहस्थधर्ममगीकरिष्यसि' इति ।

  तदनंतर द्वारपाल ने कहा-~'महाराज, श्री शैल से आया कोई ब्रह्मचर्य व्रतधारी विद्वान् द्वार पर उपस्थित है।' राजा ने कहा--'प्रविष्ट कराओ।' तब ब्रह्मचारी ने आकर कहा-चिरकाल जिओ ।' राजा ने उससे पूछा- 'हे ब्रह्मचारिन्, बाल्यावस्था में ही कलिकाल के असदृश यह तुम्हारा कैसा व्रत है ? प्रतिदिन के उपवास से दुर्बल हो गये हो । यदि तुम गृहस्थ धर्म स्वीकारो तो किसी ब्राह्मण की कन्या से तुम्हारा विवाह करा हूँ।'