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भोजप्रबन्धः


 राजा सुखीभविष्यति' इति । एवं विचार्यामात्यैः पत्रे किमपि लिखित्वा तत्पत्रं चैकस्यामात्यस्य हस्ते दत्वा प्रेषितम् । स कालक्रमेण : कालिदास- मासाच राज्ञोऽमात्यः प्रेषितोऽस्मि' इति नत्वा तत्पत्रं दत्तवान् ।

 तब फिर माघ के दिवंगत होने और विशेष रूप में कालिदास के वियोग और पंडितों के प्रवास के कारण शोक में व्याकुल राजा प्रतिदिन कृष्ण पक्ष में चंद्रमा के समान क्षीण होने लगा। तो मंत्रियों ने मिलकर सोचा--'कालिदास बल्लालदेश में वास कर रहे हैं । उनके आने पर ही राजा सुखी होंगे। ऐसा विचार कर मंत्रियों ने पत्र में कुछ भी लिखा और उस पत्र को एक मंत्री के हाथ में देकर भेजा। वह यथा समय कालिदास के पास पहुँचा और 'मुझे राजा के मंत्रियों ने भेजा है' यह कह उसने प्रणाम करके वह पत्र कालिदास को दिया।

 ततस्तत्कालिदासो वाचयति-

न भवति स भवति न चिरं भवति चिरं चेत्फले विसंवादी ।
कोपः सत्पुरुषाणां तुल्यः स्नेहेन नीचानाम् ।। २८५ ।।

 वह (प्रथम तो) होता नहीं, और होता है तो चिरकाल तक नहीं रहता और यदि चिरकाल तक रहता है तो इसका फल उलटा होता है; इस प्रकार सज्जनों का क्रोध नीचों के स्नेह के तुल्य होता है।

सहकारे चिरं स्थित्वा सलीलं बालकोकिल ।

तं हित्वाद्यान्यवृक्षेषु विचरन्न विलजा्जसे ॥२८६ ।। 

 "हे बाल कोकिल, बहुत दिनों तक आनंद-उल्लास के साथ आम के वृक्ष पर निवास करके, उसे छोड़कर आज तुम और वृक्षों पर विचरण करते लजाते नहीं ?

कलकण्ठं यथा शोभा सहकारे भवद्घिरः।
'खदिरे वा पलाशे वा किं तथा स्याद्विचारय ॥ २८७ ॥ इति ।

 तुम्हारे संुदर कंठ और मधुरीवाणी की जो शोभा आम्र वृक्ष पर थी विचार करो कि क्या वैसी शोमा कत्ये अथवा ढाक के पेड़ पर हुई ? . ततः कालिदासः प्रभाते तं भूपालमाच्छय मालवदेशमागत्य राज्ञः कीडोद्याने तस्थौ। ततो राजा च तत्रागतं ज्ञात्वा स्वयं गत्वा महता