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भोजप्रबन्धः


 परिवारेण तमानीय सम्मानितवान् । ततः क्रमेण विद्वन्मण्डले च समा- याते सा भोजपरिषत्प्रागिव रेजे।

 तब फिर प्रातः काल कालिदास ने बल्लाल भूपाल से अनुमति ली और मालव देश में आकर राजा की क्रीडावाटिका में ठहर गया। तब वहां उसे आया जान राजा अपने बड़े परिवार के साथ स्वयं जाकर उसे ले आया और उसका संमान किया । फिर धीरे-धीरे विद्वन्मंडली के आ जाने पर वह भोज की सभा पहिले की भांति सुशोभित हो गयी।

(२४) काव्यक्रीडा

 ततः सिंहासनमलङ्कुर्वाणं भोज द्वारपाल आगत्य प्रणम्याह--'देव, कोऽपि विद्वाजालन्धरदेशादागत्य द्वार्यास्ते' इति । राजा-'प्रवेशय इत्याह । स च विद्वानागत्य सभायां तथाविधं राजानं जगन्मान्यान्कालिदासादीन्कविपुङ्गवान्वीक्ष्य बद्धजिह्व इवाजायत । सभायां किमपि तस्य मुखान्न निःसरति । तदा राज्ञोक्तम्-'विद्वन् , किमपि पठ' इति ।

 तत्पश्चात् सिंहासन को सुशोभित करते भोज से द्वारपाल आकर और प्रमाण करके बोला-'महाराज, जालंधर देश से एक विद्वान् आकर द्वार पर उपस्थित है। राजा ने कहा-'प्रविष्ट कराओ।' वह विद्वान् सभा में आया और उस प्रकार के राजा और जगन्मान्य कालिदास आदि कवि श्रेष्ठों को देख मानो उसकी जीभ ही बँध गयी। सभा में उसके मुंह से कुछ निकला ही नहीं । तो राजा ने कहा-'हे पंडित, कुछ पढ़ो।'

 स आह--

आरनालगलदाहशङ्कया सन्मुखादपगता सरस्वती।'
तेन वैरिकमलाकचग्रहव्यग्रहस्त न कवित्वमस्ति मे ।। २८८ ॥

राजा तस्मै महिषीशतं ददौ।

 वह बोला--तीखी-खट्टी, पतली लपसी पीने से गला जल जाने की आशंका से सरस्वती मेरे मुख से निकल गयीं; हे शत्रु-लक्ष्मी के केश-ग्रह में व्यन हाथों वाले महाराज, इस कारण मुझ में कवित्व-नहीं रहा।

 राजा ने सौ भैंसें दीं।