अन्यदा राजा कौतुकाकुलः सीतां प्राह-'देवि, सुरतं पठ' इति ।
सीता प्राह-
सुरताय नमस्तस्मै जगदानन्दहेतवे। |
ततस्तुष्टो राजा तस्यै हारं ददौ । किसी दूसरी वार कोतक में भर कर राजा ने सीता से कहा- दाविी
सुरत का वर्णन करो।' सीता ने कहा-
जगदानंदसुहेतु सुरत को नमस्कार है, |
(जगत के आनंद के कारण स्वरूप सुरत को नमस्कार है, जिसका गौण फल हे भोजराज, आप जैसों की उत्पत्ति है।)
तुष्ट होकर राजा ने उसे हार दे दिया। |
ततो राजा चामरग्राहिणीं वेश्यामवलोक्य कालिदासं प्राह-'सुकवे, वेश्यामेनां वर्णय' इति । तामवलोक्य कालिदासः प्राह--...
'कचभारात्कुचभारः कुचमाराद्भीतिमेति कचभारः। |
तत्पश्चात् चँवर डुलाने वाली वेश्या को देखकर राजा ने कालिदास से कहा-'हे सुकवि, इस वेश्या का वर्णन करो।' उसे देख कालिदास ने कहा-
केशों के बोझ से स्तनों का भार और स्तन भार से केशों का भार डर रहा है और केश और कुच--इन दोनों के भार से जघन स्थल डर रहा है। हैं चंद्रमुखी, यह कैसा चमत्कार है।
भोजस्तुष्टः सन्स्वयमपि पठति-- |
संतुष्ट होकर भोज ने स्वयं भी पढ़ाः- |
मुख से दोनों पैर और वचन से ओठ और दाँत डर रहे हैं और केशों से दोनों कच; और मध्य भाग ( कमर) से दोनों नेत्र डर रहे हैं। .