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भोजप्रबन्धः


 जब हवा वहने की बात तक नहीं थी, ऐसे समय में भी बढ़ाया ही। भवभूतिराह-

'उरगी शिशवे बुभुक्षवे स्वामदिशत्फूत्कृतिमाननानिलेन ।
मरुदागमवार्तयापि शून्ये समये जाग्रति सम्प्रवृद्ध एवं ॥ २६३ ॥
राजा प्राह-'भवभूते, लोकोक्तिः सम्यगुक्ता' इति ।

 भवभूति ने कहा--

 नागिन ने भूखे बच्चे को मुंह की श्वास-वायु से अपनी फुंकारी दी । जब हवा वहने की बात तक नहीं थी, ऐसे समय में भी बढ़ाया ही। ( अर्थात् वायु-पान कराके अपने बच्चे का पालन-पोपण किया ) । राजाने कहा---'हे भवभूति, आपने अच्छी लोकोक्ति कही।'

 ततोऽपाङ्गेन राजा कालिदासं पश्यति । ततः स आह-

'अवलासु विलासिनोऽन्वभूवन्नयनैरेव नवोपगूहनानि ।
मरुदागमवातेयापि शून्ये समये जाग्रति सम्प्रवृद्ध एवं' ।। २६४ ॥

 तदा राजा स्वाभिप्रायं ज्ञात्वा तुष्टः कालिदासं विशेषेण सम्मानितवान् ।

 तब फिर राजा ने कनखी से कालिदास को संकेत दिया । तो उसने कहा-- विलासी व्यक्तियों ने नेत्रों से ही नारियों में नवीन आलिंगन का अनुभव किया । जब हवा बहने की बात तक नहीं थी, ऐसे समय में भी बढ़ाया ही। ( अर्थात् आनंद वृद्धि की ।)

 तो राजा अपना अभिप्राय समझ कर संतुष्ट हुआ और कालिदास को विशेप रूप से संमानित किया।

 अन्यदा मृगयापरवशो राजात्यन्तमार्तः कस्यचित्सरोवरस्य तीरे निविडच्छायस्य जम्बूवृक्षस्य मूलमुपाविशत् । तत्र शयाने राज्ञि जम्बोउपरि बहुभिः कपिभिर्जम्बूफलानि सर्वाण्यपि चालितानि । तानि सशब्दं पतितानि पश्यन्घटिकामात्रं स्थित्वा श्रमं परिह्रत्य उत्थाय तुरङ्गमवरमारुह्य गतः।

 एक और वार आखेट में लीन हो राजा अत्यंत थक कर किसी तालाव के किनारे घनी छायादार जामुन के पेड़ के नीचे बैठा था। वहाँ लेटे राजा पर जामुन के ऊपर के बहुत-से बंदरों ने सभी जामुनें झाड़ डाली । एक घड़ी