पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१६१

एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति
भोजप्रबन्धः


 वहाँ सिंहासन को सुशोभित करते श्री भोज ने समस्त विद्वानों और कवियों की मंडली के शृंगार कालिदास को देखकर कहा-'सुकवे, तीन अक्षर कम चतुर्थ चरण वाली इस समस्या' को सुनो' और पढ़ा-किंकर्तव्य विमूढ़ बिता दी, घड़ियां दो-तीन ।' यह पढ़कर राजा ने कालिदास से कहा-हे सुकवि, इस समस्या की पूर्ति करो।'

 ततः कालिदासस्तस्य हृदयं करतलामलकवत्प्रपश्यंस्त्रयक्षराधिक- चरणत्रयविशिष्टां तां समस्यां पठति--देव,

स्नाता तिष्ठति कुन्तलेश्वरसुता वारोऽङ्गराजस्वसु.
द्र्यूते रात्रिरियं जिता कमलया देवी प्रसाद्याधुना। .
इत्यन्तःपुरसुन्दरीजनगुणे न्यायाधिकं ध्यायता
देवेनाप्रतिपत्तिमूढमनसा द्वित्राः स्थिता नाडिकाः।। ३०२॥

 तदा राजा स्वहृदयमेव ज्ञातवतः कालिदासस्य पादयोः पतति स्म । कविमण्डलं च चमत्कृतमजायत ।

  तब राजा के हृदय को हथेली पर रखे आँवले के सदृश-देखते कालिदास ने शेष तीन चरण और ( चतुर्थ चरण के शेष ) तीन अक्षरों से विशिष्ट उस समस्या को पढ़ा-

कुंतलराजसुता ऋतुस्नाता, अंगराजदुहिता का वार;
कमला जीती रात द्यूत में, 'देवी' की करनी मनुहार;
अंतःपुर की सुंदरियों के गुण-परिवीक्षण में हो लीन-
किं कर्तव्य विमूढ़ विता दी राजा ने घड़ियाँ दो-तीन ।

 तब राजा अपने मन को ही जान लेने वाले कालिदास के पैरों पड़ा और कवि मंडली चमत्कृत हो गयी।

 एकदा राजा धारानगरे विचरन्क्वचित्पूर्णकुम्भं धृत्वा समायान्तीं पूर्णचन्द्राननां काञ्चिदृष्टा तत्कुम्भजले शब्दं च कञ्चन श्रुत्वा 'नूनमेव तस्याः कण्ठग्रहेऽयं घटो रतिकूजितमिव कूजित' इति मन्यमानः सभायां कालिदासं प्राह--कूजितं रतिकूजितम्' इति । ...

 एक वार धारा नगर में विचरण करते राजा भोज ने किसी स्थान पर भरे घड़े को लेकर आती एक पूर्ण चंद्रमा के समान मुखवाली स्त्री को देखा