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भोजप्रबन्धः


 जतुपरीक्षयाक्षराणि परिज्ञाय पठति। तत्र चरणद्वयमानुपूर्व्यार्ल्लब्धम्-

 'अयि खलु विषमः पुराकृतानां भवति हि जन्तुषु कर्मणां विपाकः' ततोः भोजः प्राह-एतस्य पूर्वार्धं कथ्यताम्' इति । ।

 चपड़े ( लाख ) की विधि द्वारा परीक्षा करके अक्षरों के ज्ञात होने पर पढ़ा उसमें दो चरण अनुक्रम से मिले-

मिलता है कैसा दारुण फल प्राणियों को,
पहिले कभी किये गये हाय, कर्मजाल का !
तब भोज ने कहा--'इसका पूर्वार्ध कहें।'
तदा भवभूतिराह--
क्वनु कुलमकलङ्कमायताक्ष्याः।
क्व नि रजनीचरसङ्गमापवाद:।
अयि खलु विषमः पुराकृतानां
भवति हि जन्तुषु कर्मणां विपाकः ॥ ३०४ ।।
तव भवभूति ने कहा---
कहाँ तो निष्कलंक कुल विशाल नयना का,
कहाँ मिला अपवाद निशाचर के संग का;
मिलता है कैसा दारुण फल प्राणियों को,
पहिले कभी किये गये, हाय, कर्मजाल का !

 ततो भोजस्तत्र ध्वनिदोषं मन्वानस्तदेव पूर्वार्धमन्यथा पठति स्म-- 'क्व जनकतनया क रामजाया क्व च दशकन्धरमन्दिरे निवासः । अयि खलु विषमः पुराकृतानां भवति हि जन्तुषु कर्मणां विपाकः ॥

 तो भोज ने उसमें ध्वनि दोष मान कर उस पूर्वार्ध को दूसरे प्रकार से पढ़ा-

कहाँ जनक तनया और राम की पत्नी कहाँ,
और कहाँ रहना दशकंधर के महल का! ..
मिलता है कैसा दारुण फल प्राणियों को,
पहिले कभी किये गये हाय, कर्मजाल का !

 ' ततो भोजः कालिदासं प्राह--'सकवे, त्वमपि कविहृदयं पठ' इति । स आह-~