पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१६५

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भोजप्रवन्धः


 उस प्रकार वहीं जमे रहने पर राजा चिंता करने लगा कि इससे कैसे छुटकारा मिले? :: . .. . . . . . . .

  तदा कालिदासः प्राह---'देव, नूनमयं राक्षसः सकलशास्त्रप्रवीणः सुकविश्व भाति । अतस्तमेव तोषयित्या कार्यं साधयानि । मान्त्रि- कास्तिष्टन्तु । मम मन्त्रं पश्य' इत्युक्त्वा स्वयं तत्र रात्रौ गत्वा शेते स्म ।

  तो कालिदास ने कहा-'महाराज, यह राक्षस निश्चय ही संपूर्ण शास्त्रों का विज्ञाता और सुकवि प्रतीत होता है। इसलिए उसको प्रसन्न करके ही कार्य सिद्ध करूँगा। मंत्रवेत्ता ठहरें, आप मेरा मंत्र देखिए ।' ऐसा कह रात में वहाँ जाकर स्वयं सो गया। ,

  प्रथमयामे ब्रह्मराक्षसः समागतः स चापूर्व पुरुपं दृष्ट्वा प्रतियाममेकैकां समस्यां पाणिनि सूत्रमेव पठति । येनोत्तरं तद्धृदयगतं नोक्त्तम् । 'अयं न ब्राह्मणः, अतो हन्तव्यः' इति निश्चित्य हन्ति । तदानीमपि पूर्ववदयमपूर्वः पुरुषः । अतो मया समस्या पठनीया। न चेद्वक्ति संदृशमुत्तरं तस्यास्तदा हन्तव्य इति । बुद्धया पठति- 'सर्वस्य द्वे' इति ।

 पहिले पहर में ब्रह्म राक्षस आया करता था और नये पुरुष को देखकर प्रत्येक पहर में एक-एक समस्या के रूप में पाणिनि का सूत्र ही पढ़ा करता था । जो उसका मनचीता उत्तर न देता, यह विचार कर कि 'यह ब्राह्मण नहीं हैं, इसे मार डालना चाहिए,' उसे मार डालता । 'नया पुरुष आया है, इसलिए मुझे समस्या पढ़नी चाहिए। यदि ठीक उत्तर न दे तो मार डालना चाहिए'-कालिदास के वहाँ होने पर भी यही विचार कर उसने पढ़ा-

 'सब के दो'-

तदा कालिदासःप्राह- 'सुमतिकुमती सम्पदापत्तिहेतू'

इति । ततः स गतः ।

 तो कालिदास ने कहा-

 'कारण संपद्-विपद् की सुमति-कुमति ही सदा हुआ करती हैं।', तो वह चला गया।