तो वह राक्षस चारों ही पहरों में अपना मनचीता भाव जानकर संतुष्ट
हुआ और प्रभात काल में आकर कालिदास का आलिंगन करके.बोला--'हे
सुबुद्धि शाली, मैं संतुष्ट हूँ। तुम्हारा - अभीष्ट क्या है ?' कालिदास ने कहा-
'भगवन्, इस घर को छोड़कर और स्थान पर चले जाइए।' वह भी 'ठीक'
है, यह कह चला गया। इसके बाद संतुष्ट भोज ने कवि का बहुत संमान
किया।
(२८ ) मल्लिनाथस्य दारिद्र्यनिवारणम्
एकदा सिंहासनमलङ्कुर्वाणे श्रीभोजे सकलभूपालशिरोमणी द्वार- पाल आगत्य प्राह–'देव, दक्षिणदेशात्कोऽपि मल्लिनाथनामा कविः कौपीनावशेषो द्वारि वर्तते । राजा-'प्रवेशय' इत्याह ।
एक वार समस्त पृथ्वी-पतियों के शिर की मणि के समान (श्रष्ठ ) श्री भोज के सिंहासन को सुशोभित करने पर द्वारपाल आकर बोला--'महाराज, दक्षिण देश से आया कोई कोपीन, मात्र धारी मल्लिनाथ नामक कवि द्वार पर उपस्थित है।' राजा ने कहा--'प्रवेश दो।'
ततः कविरागत्य 'स्वस्ति' इत्युक्त्वा तदाज्ञया चोपविष्टः पठति --- |
तब कवि ने आकर 'कल्याण हो' कहा और राजा की आज्ञा से वेठ कर पढ़ा--
मद से हाथी शोमित होता है, आकाश जलधर बादलों से, रात्रि पूर्ण चंद्र से, नारी शील से, घोडा वेग से, मंदिर प्रतिदिन के उत्सवों से, वाणी व्याकरण से, नदियाँ हंसों के जोड़ों से, सभा पंडितों से, कुल सपूत से, घरती आपसे और तीनों लोक सूर्य से शोभित होते है। . . . । ततो राजा.प्राह--'विद्वन् , तवोद्देश्यं किम्' इति । .. .
तब राजा ने कहा---'हे विद्वान्, तुम्हारा उद्देश्य क्या है ?', ":