उस समय पूर्व की ओर ( कवि की ओर ) मुख करके बैठे राजा ने
अत्यंत संतुष्ट हो 'पूर्व का संपूर्ण देश मैंने कवि को दे दिया'-यह मान
लिया और दक्षिण की ओर मुंह करके बैठ गया । तो कवि ने सोचा--'यह
क्या है कि राजा मुँह फेर कर बैठ गया और मेरी ओर देखता भी नहीं ?'
ततो दक्षिणदेशे समागत्याभिमुखः कविः पठति-- . . .
'अपूर्वेयं धनुर्विद्या भवता शिक्षिता कथम् । |
" ततोराजा दक्षिणदेशमपि मनसा कवये दत्त्वा स्वयं प्रत्यङ्मुखोऽभूत् ।
तब दक्षिण की ओर आ राजा के संमुख हो कवि ने पढ़ा--आपने यह अनोखी धनुविद्या कहाँ से सीखी है कि बाण समूह तो आता है पर प्रत्यंचा (धनुष की डोरी ) दूसरी ओर चली जाती है, अर्थात् मार्गणोध ( याचक समूह ) के आते ही गुण ( कृपा ) दूसरी ओर हो जाती है।
तो दक्षिण देश भी कवि को देने का मन में संकल्प कर राजा स्वयम् पश्चिम को मुख करके बैठ गया। ..
कविस्तत्रागत्य प्राह---
'सर्वज्ञ इति लोकोऽयं भवन्तं भाषते मृषा। |
ततो राजा तमपि देशं कवेर्दत्तं मत्योदङ्मुखोऽभूत् ।
कवि उधर आकर बोला--
आपको यह संसार व्यर्थ ही सर्वज्ञ कहता है; आप तो याचक से 'नहीं है' यह एक शब्द भी कहना नहीं जानते ।
तो राजा ने वह ( पश्चिम ) देश भी कवि को देकर उत्तर की ओर मुख कर लिया।
कविस्तत्राप्यागत्य प्राह--
'सर्वदा सर्वदोऽसीति मिथ्या त्वं कथ्यसे बुधैः । |
ततो राजा स्वां भूमि कविदत्तां मत्वोत्तिष्ठति स्म ।