- . भोजप्रबन्धः एत्याह-'देव, कश्चित्कविर्द्वारि तिष्ठति । तेनेयं प्रेषिता गाथासनाथा चीठिका देवसभायां निक्षिप्यताम्' इति तां दर्शयति । फिर कभी श्रीभोज के सिंहासन सुशोभित करने पर कालिदास, भवभूति,. दंडी, बाण, मयूर, वररुचि आदि कवियों के तिलक स्वरूप कवि कुल से अलंकृत सभा में द्वारपाल आकर बोला-'महाराज, कोई कवि द्वार पर उपस्थित है। उसने इस गाथा के साथ महाराज की सभा में देने के लिए यह चीठी भेजी है ।' यह कहकर उसने पत्रिका दिखायी। राजा गृहीत्वा तां वाचयति- 'काचिद्वाला रमणवसति प्रेषयन्ती करण्डं .. दासीहस्तात्सभयमलिखद्व्यालमस्योपरिस्थम् । गौरीकान्तं पवनतनयं चम्पकं चात्र भावं पृच्छत्यार्यों निपुणतिलको मल्लिनाथः कवीन्द्रः ॥३२३॥ राजा ने लेकर पढ़ा- एक नव युवती ने अपने प्रियतम के पास दासी के हाथ एक कंडी ( वांस की पिटारी) भेजते हुए उसके ऊपर डरते-डरते एक सर्प बना दिया और गौरी पति शिव, पवन पुत्र हनुमान् और चंपा का फूल-~-ये सब भी बना दिये; तो चतुरों में तिलक समान ( श्रेष्ठ ) कविराज आर्य मल्लिनाथ पूछता है कि इसका भाव क्या है ? तच्छुत्वा सर्वापि विद्वत्परिषञ्चमत्कृता। ततः कालिदास प्राह-राजन्, मल्लिनाथः शीघ्रमाकारयितव्यः' इति । ततो राजादेशाद्वारपालेन स प्रवेशितः कवी राजानं 'स्वस्ति' इत्युक्त्वा तदाज्ञयोपविष्टः । उसे सुन सारी विद्वन्मंडली चमत्कृत हो गयी। तो कालिदास ने कहा- 'हे राजन्, मल्लिनाथ को शीघ्र वुलवाइए।' तो फिर राजा की आज्ञा से द्वारपाल-द्वारा भीतर भेजा गया वह कवि राजा के प्रति मंगल हो' यह कह कर उसकी आज्ञा से बैठ गया । ततो राजा प्राह तं कवीन्द्रम्-'विद्वन्मल्लिनाथकवे, साधु रचिता गाथा । तदा कालिदासःप्राह-'किमुच्यते साध्विति । देशान्तरगत- .
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