'भोजप्रबन्धः १८१ तत्पश्चात् कालिदास के वियोग में शोक से व्याकुल राजा उस कालिदास को खोजने के लिए कापालिक का वेष धरकर यथा क्रम एक शिला नगर पहुँचा । तो कालिदास ने योगी को देखकर उससे संमानपूर्वक पूछा-'योगीजी, आपका स्थान कहाँ है ?' योगी वदति-सुकवे, अस्माकं धारानगरे वसतिः' इति । योगी ने कहा-~-हे सुकवि, हमारा निवासस्थान धारा नगरी है।' ततः कविराह-'तत्र भोजः कुशली किम् १' तो कवि ने पूछा---'वहाँ भोज सकुशल हैं ?' ततो योगी प्राह--'किं मया वक्तव्यम्' इति । नो योगी ने कहा-'मैं क्या कहूँ ?' ततः कविराह-'तत्रातिशयवार्तास्ति चेत्सत्यं कथय' इति । तो कवि ने कहा--'वहाँ यदि कोई विशेष बात हो तो सच सच वताइए।' तदा योगी पाह--'भोजो दिवं गतः' इति । तब योगी ने कहा-'भोज स्वर्ग चला गया।' ततः कविर्भूमौ निपत्य प्रलपति--'देव, त्वां विनास्माकं क्षणमपि भूमौ न स्थितिः । अतस्त्वत्समीपमहमागच्छामि' इति कालिदासो क्षणं विलप्य चरमश्लोकं कृतवान्-- 'अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती। पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवं गते' !! ३२६ ॥ तो धरती पर पछाड़ खाकर कवि विलाप करने लगा-'महाराज, आपके विना धरती पर हम क्षण भर भी नहीं रह सकते; इसलिए मैं आपके पास आता हूं।' इस प्रकार कालिदास ने बहुत-सा-विलाप करके मरण श्लोक रचा- आज धारा का नहीं आधार, शारदा का है नहीं अवलंब, हुए खंडित आज पंडित लोग, भोजराज चले गये स्वर्लोक । एवं यदाकविनाचरमश्लोक उक्तस्तदैव स योगी भूतले विसंज्ञः पपात। ततः कालिदासस्तथाविधं तमवलोक्य 'अयं भोज एव' इति निश्चित्य -
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