ततो गृहीते भोजे लोकाः कोलाहलं चक्रुः। हुम्भावश्च प्रवृत्तः । विं
किम्' इति त्रु वाणा भटा विक्रोशन्त आगत्य सहसा भोज वधाय नीत
ज्ञाला हस्तिशालामुष्टशालां वाजिशाला रथशालां प्रविश्य सञ्जिन्तुः ।
ततः प्रतोलीषु राजभवनप्राकारवदि कासु बहिरि विटङ्कषु पुरसमीपेषु
भेरीपटमुरजमड्डुकडिण्डिमांननदाडम्बरं विडम्बितमभन्। केचिद्विम-
लासिना केचिद्विषेण केचित्कुन्तेन केचित्पाशेन केचिह्निना केचित्परशुना
केचिद्भल्लेन केचित्तोमरेण केचित्प्रासेन केचिदम्भमा केचिद्धारायां
ब्राह्मणयोपित्तोराजपुत्रा राजसेवका राजानः पौरांश्च प्राणपरित्यागंदधुः ।
तदनंतर भोज के पकड़ कर ले जाये जाने पर लोग कोलाहल करने लगे । हुङ्कार होने लगा । 'क्या हुआ, क्या हुआ' ऐसा कहते चिल्लाते हुए योद्धाओं ने आकर, अकस्मात् भोज को वध के निमित्त लेजाया गया जानकर, हस्तिशाला, उप्ट्रशाला, अश्वशाला, रथशाला में घुस कर सव को मार डाला। तत्पश्चात् गलियों में, राजमहल के प्राचीर की वेदियों पर, बाहरी द्वारों के चबूतरों पर, नगर के निकट स्थानों पर नगाड़ों, ढोलकियों, मृदङ्गों, डोलों और दौड़ियों के तीव्र घोप से आकाश गूंज उठा । ब्राह्मणों की स्त्रियों, राजपुत्रों. राजसेवकों, राजाओं और पुरजनों ने कुछ ने चमकती तलवार से, कुछ ने विप के द्वारा. कुछ ने भाले से, कुछ ने रस्सी में फांसी लगा, कुछ ने आग में जल, कुछ ने फरसे द्वारा, कुछ ने वरछी से, कुछ ने तोमर द्वारा, कुछ ने खाँड़े से, कुछ ने कुएँ और कुछ ने नदी में डूवकर-प्राणों का त्याग कर दिया।
ततः सावित्रीसंज्ञा भोजस्य जननी विश्वजननीव स्थिता दालीमुखा- स्वपुत्रस्थितिमाकर्य कराभ्यां नेत्रे पिधाय रुदतो प्राह---'पुत्र, पितृव्येन कां दशां गमितोऽसि । ये मया नियमा उपवासाश्च त्वत्कृते कृताः, तेऽद्य मे विकला जाताः । दशापि दिशामुखानि शून्यानि । पुत्र, देवेन सर्वज्ञेन सर्वशक्तिनामृष्टाः श्रियः । पुत्र, एनं दासीवर्ग सहसा विच्छिन्नशिरसं पश्य' इत्युक्त्वा भूमावपतत् ।
तदनंतर संसार की माता के समान स्थित सावित्री नाम की भोज की माता दासी के मुख से अपने पुत्र की दशा सुनकर हाथों से नेत्रों को ढक कर रोती हुई कहने लगी-'पुत्र, चाचा ने तुम्हें किस दशा को पहुंचा दिया ।