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भोजप्रवन्धः


 

'लक्ष्मीकौस्तुभपारिजातसहजः सूनुः सुधाम्भोनिधे- .
 देवेन प्रणयप्रसादाविधिना मूर्ना धृतः शम्भुना।
अद्याप्युज्झति नैव दैवविहितं क्षण्यं (१) क्षपावल्लभः
केनान्येन विलङ्बयते विधिगतिः पापाणरेखासखी ॥ २६ ॥

 लक्ष्मी, कौस्तुभमणि और कल्पवृक्ष के साथ उत्पन्न, अमृत-समुद्र का पुत्र, महादेव शिव के द्वारा प्रेम और प्रसन्नता प्रकट करने की रीति से मस्तक पर स्थापित, रात्रि का प्रियतम चंद्रमा भाग्य के द्वारा निर्दिष्ट क्षीण होने की क्रिया को आज भी नहीं छोड़ पाता। पत्थर पर खिची लकीर के समान अमिट विधाता की गति का उल्लंघन और किसके द्वारा हो सकता है ?

 विकटोामप्यटनं शैलारोहणमपान्निधेस्तरणम् ।
निगड गुहाप्रवेशो विधिपरिपाकः कथं नु सन्तायः ॥ ३०॥

 विधाता के द्वारा निर्दिष्ट होने पर विकट भूमि पर मारे-मारे फिरना, पर्वत पर चढ़ना, समुद्र में तैरना, वेड़ी में जकड़ा जाना, गुफा में रहना- इन सव से कैसे निस्तार पाया जा सकता है ?

अम्भोधिः स्थलता स्थलं जलधितां धूलीलवः शैलतां
मेरुमत्कुणतां तृणं कुलिशतां वज्र तृणप्रायताम् ।
वह्निः शीतलतां हिसं दहनतामायाति यस्येच्छया
लीलादुललिताद्भुतव्यसनिने देवाय तस्मै नमः' ।। ३१।।

 जिस देव की इच्छा से समुद्र सूखी धरती, स्थली समुद्र, धूलिकण पर्वत, सुमेरु मिट्टी का कण, तिनका वज्र और वज्र तिनका बन जाता है; आग शीतल हो जाती है और वर्फ आग बन जाता है, लीला मात्र से दुष्कर किंतु सुंदर और अद्भुत कर्म करने के व्यसनी उस देवता को नमस्कार है।

 ततो वटवृक्षस्य पत्र आदायकं पुटीकृत्य जड़यां छुरिकया वित्त्वा तत्र पुटके रक्तमारोप्य तृणेनैकस्मिन्पत्रे कञ्चन श्लोकं लिखित्वा वत्सं प्राह–'महाभाग, एतत्पत्रं नृपाय दातव्यम् । त्वमपि राजाज्ञां विधेहि' इति। यह कहने के पश्चात् भोज ने वटवृक्ष के दो पत्ते लेकर एक का दोना(१)चन्द्रमाः इति यावत्