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भोजप्रबन्धः


यथाङ्कुरः सुसूक्ष्मोऽपि प्रयत्नेनाभिरक्षितः।
फलप्रदो भवेत्काले तथा लोकः सुरक्षितः ॥ ४२ ॥
हिरण्यधान्यरत्नानि धनानि विविधानि च।
तथान्यदपि यत्किञ्चित्प्रजाभ्यः स्युर्महीभृताम् ॥ ४३॥
राज्ञि धर्मिणि धर्मिष्ठाः पापे पापपराः सदा। .
राजानमनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः ॥४४॥

 तव बुद्धि सागर आकर वोला-'जैसा तू नीच राजा है, वैसा ही नीच मंत्री वत्सराज है , तुझे राज्य देकर उस सिंधुल राजा ने भोज को तेरी गोद में स्थापित किया था और तुझ चाचा ने उसका उलटा कर दिया । . .

 ..दुरात्मा व्यक्ति थोड़े से दिन ठहरनेवाली, मद उत्पन्न करनेवाली जवानी में ऐसा अपराध कर बैठते हैं कि उससे जन्म ही व्यर्थ हो जाता हैं ।

 'सज्जन सिर से तिनका हटा देने को भी सोने की मुहरों का अर्पण मानते है और दुर्जन प्राण देकर उपकार करनेवाले के साथ भी वैर ही निवाहते हैं।

 जो उपकार अथवा अपकार को भूल जाता है, उस पत्थर जैसे कठोर

व्यक्ति को यह प्रतीति कि 'वह जी रहा है, व्यर्थ है ।

 जैसे प्रयत्नपूर्वक रखाया गया अत्यंत छोटा अंकुर भी-यथा समय फल देनेवाला हो जाता है, वैसे ही सुरक्षित व्यक्ति भी।

 स्वर्ण, अन्न, रत्न और भाँति-भाँति के धन तथा और जो कुछ भी है, वह सव राजाओं को प्रजा से ही प्राप्त होता है ।  (प्रजाजन ) राजा के धर्मात्मा होने पर धर्मात्मा तथा पापी होने पर पापी होते हैं। प्रजा राजा का ही अनुकरण करती है । जैसा राजा, वैसी

 'ततो रात्रावेव वह्निप्रवेशनं निश्चिते राज्ञि सर्वे : [] (२) लोकप्रवादः । प्रजा।' ..

  1. (१) सामन्ताः  पौराश्च मिलताः ।'पुत्रं हत्वा पापभयाद्रीतो नृपतिर्वहिं प्रविशति' इति (२) किंवदन्ती सर्वत्राजनि । ततो. बुद्धिसागरो द्वारपालमाहूय 'न केनापि भूपालभवनं प्रवेष्टव्यम्' इत्युक्त्वा नृपमन्तःपुरे निवेश्य सभायामेकाकी सन्नुपविष्टः । ततो राजमाणवार्ता श्रुत्वा वत्सराजः सभागृहमागत्य बुद्धिसागरं नत्वा शनैः प्राह-'तात, मया भोजराजो (१) समन्ताद्भवाः सामन्ताः ।