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भोजप्रबन्धः


(२) गोविन्दपण्डितः भोजराजेन च विदुषां सम्मानः

 ततो मुञ्जे तपोवनं याते बुद्धिसागरं मुख्यामात्यं विधाय स्वराज्य बभुजे भोजराजभूपतिः । एवमतिक्रामति काले कदाचिद्राज्ञा क्रीडतोद्यानं गच्छता कोऽपि धारानगरवासी. विप्रो लक्षितः । स च राजानं वीक्ष्य : नेत्रे निमील्यागच्छन्राज्ञा पृष्टः-'द्विज, त्वं मां दृष्ट्वा न स्वस्तीति जल्पसि । विशेषेण लोचने निमीलयसि । तत्र को हेतुः इति !

 तत्पश्चात् मुंज के तपोवन चले जाने पर वुद्धिसागर को मुख्यमंत्री बनाकर राजा भोज अपने राज्य का भोग करने लगा। इस प्रकार समय व्यतीत होने पर क्रीडामग्न राजा ने उद्यान जाते हुए एक धारानगर निवासी ब्राह्मण देखा। राजा को देख आँख-मीच कर चले जाते उससे राजा ने पूछा-'हे ब्राह्मण, तुम मुझे देखकर 'स्वस्तिः ( कल्याण हो ) नहीं कहते हो और ऊपर से आँखें मूंद लेते हो । इसमें क्या कारण हैं ?

 विप्र आह-'देव, त्वं वैष्णवोऽसि । विप्राणां नोपद्रवं करिष्यसि "ततस्त्वत्तो न मे भीतिः। किन्तु कस्मैचित्किमपि न प्रयच्छसि; तेन तव "दाक्षिण्यमपि नास्ति । अतस्ते किमाशीर्वचसा । कि च प्रातरेव कृपणमुखावलोकनात्परतोऽपि · लाभहानिः स्यादिति लोकोक्त्या लोचने निमीलिते।


 ब्राह्मण वोला--'देव, आप वैष्णव हैं; ब्राह्मणों का कोई अनिष्ट नहीं करेंगे, अतः आपसे डर नहीं है । किंतु किसी को कुछ देते नही, इससे आप में 'उदारता भी नहीं है । अतएव आशीर्वाद से आपका क्या ? परंतु सवेरे ही: सवेरे कंजस का मुंह देखने के कारण अन्य प्रकार से भी लाभ की हानि हो सकती है-इस कहावत को ध्यान में रखते हुए मैंने नेत्र मुंद लिये ।

अपि च-प्रसादो निष्फलो यस्य कोपश्चापि निरर्थकः ।

न तं राजानमिच्छन्ति प्रजाः षण्ढ मिव स्त्रियः ॥ ४७ ॥
अप्रगल्भस्य या विद्या कृपणस्य च यद्धनम् ।
यञ्च बाहुवलं भीरोर्व्यर्थमेतत्त्रयं भुवि ॥४८॥

कहा भी है--जिसकी प्रसन्नता निष्फल हो और क्रोध निरर्थक, ऐसे राजा को प्रजा नहीं चाहती, जैसे नपुंसक को स्त्रियां नहीं चाहतीं।