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भोजप्रबन्धः


 बोल न जानने वाले की जो विद्या है, कंजूस का जो धन है और डरपोक का जो भुजबल है,ये तीनों संसार में व्यर्थ हैं। ..

 देव, मत्पिता वृद्धः काशीं प्रति गच्छन्मया शिक्षां पृष्टः-'तात, मया किं कर्तव्यम्' इति । पित्रा चेत्थमभ्यधायि-

'यदि तव हृदयं विद्वन्सुनयं स्वप्नेऽपि मा स्म सेविष्टाः ।
सचिवजितं पण्ढजितं थुवतिजितं चैव राजानम् ॥ ४६॥
पातकानां समस्तानां द्वे परे तात पातके।
एक दुःसचिवो राजा द्वितोयं च तदाश्रयः ।। ५० ।।
[] विवेकमतिर्नृपतिरह्मन्त्री गुणवत्सु वक्रितग्रीवः ।
यत्र खलाश्च प्रबलास्तत्र कथं सज्जनावसरः ।। ५१ ।।
राजा सम्पत्तिहीनोऽपि सेव्यः सेव्य गुणाश्रयः।
भवत्याजीवनं तस्मात्फलं कालान्तरादपि ।। ५२ ।।

 महाराज, अपने काशी जाते बूढ़े पिता से मैंने सीख मांगी कि-'तात, मुझे क्या करना उचित है ?' पिता ने इस प्रकार कहा:--'विद्वात् बेटे, यदि तेरे हृदय में सुनीति है तो स्वप्न में भी मंत्री के, नपुंसक के और तरुणी के वशीभूत राजा की सेवा न करना।

 हे तात, सब पापों में दो पाप सबसे बड़े हैं-एक बुरे मंत्रीवाला राजा और दूसरा उसका आश्रय ।

 जहाँ विवेक बुद्धि शून्य राजा हो, जहाँ गुणियों पर टेढ़ी गरदन रखने-

वाला ( पराङ्मुख ) मंत्री हो और खल दुष्ट प्रवल पड़ते हों, सज्जन को वहाँ अवसर कहाँ ?

 संपत्तिहीन होने पर भी सेवनीय गुणों से मंडित राजा की सेवा करनी उचित है । कालांतर में उससे जीवन पर्यत फल मिलता है।

अदातुर्दाक्षिण्यं नहि भवति । देव, पुरा कर्ण-दृधिचि-शिवि-

विक्रम-प्रमुखाः क्षितिपतयो यथा परलोकमलङ्कुर्वाणा निजदानसमुद्भूतदिव्यनवंगुणैर्निवसन्ति महीमण्डले, तथा किमपरे राजानः । दान न करने वाले में उदारता नहीं होती। देव, प्राचीन काल में कर्ण,(१) अविवेका विवेकरहिता मतिः बुद्धिर्यस्य सः।

  1. (१)