. शत्रु का शस्त्र, कवि को कष्ट और मृगनयनाओं का नीवीबंध । ....
(एक पाठ 'नीवीबन्धो मृगीदृशां' के स्थान पर 'गर्विताञ्च गौरवम्' है, अर्थ ---'अभिमानियों का सानं'। )..
राजा ने एक लाख मुद्रा दिया।
ततस्तस्मिन्मृगयारसिके राजनि कञ्चन पुलिन्दपुत्रो गायति । तद्गीतमाधुर्येण तुष्टो राजा तस्मै पुलिन्दपुत्राय पञ्चलक्षं ददौ । तदा कविस्तद्दानमत्युन्नतं किरातपोतं च दृष्ट्वा नरेन्द्रपाणिकमलस्थपङ्कजमिषेण राजानं वदति-
एते हि गुणाः पङ्कज सन्तोऽपि न ते प्रकाशमायान्ति । |
भोजस्तमभिप्रायं ज्ञात्वा पुनर्लक्षमेकं ददौ। '
तदनंतर राजा के मृगया में अनुरक्त रहने पर किसी भील के बेटे ने गाया। उस गीत माधुरी से संतुष्ट हो राजा ने भील के पुत्र को पाँच लाख दिये । तव कवि ने उस किरात पुत्र के अनुपात में दान को कहीं अधिक देखकर राजा के करकमल में स्थित कमल के व्याज से राजा से कहा--
हे कमल, रहने पर भी तेरे वे गुण प्रकट नहीं हो पाते क्योंकि लक्ष्मी के निवास स्थल तेरे कोश का उपभोग भ्रमर कर लेते है। भोज ने उसका अभिप्राय समझ कर फिर एक लाख दिया ।
ततो राजा ब्राह्मणमाह-
'प्रभुभिः पूज्यते विप्र कलैव न कुलीनता । |
एवं वदति भोजे कुतोऽपि [१] पञ्चपाः कवयः समागताः । तान्दृष्ट्वा राजा विलक्षण इचासीत्--'अद्यैव मयैतावद्वित्तं दत्तम्' इति । ततः कविस्तमभिप्रायं ज्ञात्वा नृपं पद्ममिषेण पुनः प्राह....
'किं कुप्यसि कस्मैचन सौरभसाराय कुप्य निजमधुने । |
तब राजा ने ब्राह्मण से कहा--
(१) पञ्च वा पड् वा पञ्चपाः “संख्ययाव्ययासन्ना०" इत्यनेन बहुव्रीहिः।
- ↑ (१)