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भोजप्रवन्धः


 हे ब्राह्मण, समर्थ पुरुषों द्वारा कुलीनता की नहीं, कला की ही पूजा की जाती है । इतने देवों के होने पर भी कलावान् चंद्रमा ही शिव शंभु द्वारा समानित होता है।

 भोजराज के ऐसा कहते ही कहीं से पाँच-छ कवि आ गये। उन्हें देखकर राजा विगतलक्षण-अनमना-सा हो गया कि आज ही मैंने इतना धन दान किया है । तब कवि ने उसके अभिप्राय को समझ कर पुनः कमल के व्याज से- राजा से कहा-

 हे शतदल कमल, जिसके निमित्त भ्रमर आज तेरे पत्ते-पत्ते में अनुसंधान

कर रहे हैं, उस नवीन सुगंध के सार से पूर्ण अपने मधु के हेतु क्यों किसी से कुपित होते हो?

 ततः प्रभु प्रसन्नवदनमवलोक्य प्रकाशेन प्राह- ..

'न दातुं नोपभोक्तुं च शक्नोति कृपणः श्रियम् ।
किन्तु स्पृशति हस्तेन नपुंसक इव स्त्रियम् ।। ७० ।।
याचितो यः प्रहृष्येत दत्त्वा प्रीतिमान्भवेत् ।
तं दृष्ट्वाप्यथवा श्रुत्वा नरः स्वर्गमवाप्नुयात् ।। ७१ ।।

ततस्तुष्टो राजा पुनरपि कलिङ्गदेशवासिकवये लक्षं ददौ।

तत्पश्चात् स्वामी को प्रसन्नवदन देखकर प्रकट रूप से वोला--  कंजूस न तो संपत्ति का दान कर पाता है, न भोग । नपुंसक जैसे स्त्री को हाथ से छूता भर है, वैसे ही वह भी संपत्ति का हाथ से स्पर्श मात्र करता है।

 जो याचना किये जाने पर हर्ष को प्राप्त हो और देकर प्रसन्न हो, ऐसे व्यक्ति को देखकर अथवा उसके विषय में सुनकर भी मनुष्य को स्वर्ग प्राप्त होता है।

तव संतुष्ट हो राजा ने कलिंग देश के वासी कवि को पुनः लाख दिये ।

 ततः पूर्वकविः पुरःस्थितान्षटकवीन्द्रान्द्रष्टवाह हे कवयः, अत्र. महासुरः सेतुभूमौवासी राजा यदा भवनं गमिष्यति तदा किमपि ब्रूत' इति । ते च सर्व महाकवयोऽपि सर्व राज्ञः प्रथमचेष्टितं ज्ञात्वावर्तन्त । तेष्वेकः सरोमिषेण नृपं प्राह--