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भोजप्रवन्धः


 'आगतानामपूर्णानां पूर्णानामपि गच्छताम् । .
यदध्वनि न सङ्घट्टो घटानां तत्सरो वरम् ॥ ७२ ॥

इति । तस्य राजा लक्षं ददौ।।

 तब पहिले आया कवि संमुख स्थित छः कविराजों को देखकर वोला-- हे कवियों, इस महान् सरोवर की तटभूमि पर स्थित राजा जब स्व-भवन जाय, तब कुछ कहना । वे सब महाकवि राजा का संपूर्ण पूर्व कृत आचरण जान कर खड़े थे । उनमें से एक सरोवर के व्याज से राजा से बोला--- -

 खाली आये और भर कर जाते घड़ों की मार्ग में जो टकराहट न हो, तालाब वही अच्छा होता है। .

संतुष्ट राजा ने उसे लाख दिये।

 ततो गोविन्दपण्डितस्तान्कवीन्द्रान्दृष्ट्वा चुकोप । तस्य कोपाभिप्राय ज्ञात्वा द्वितीयः कविरांह--

 'कस्य तृषं न क्षपयसि पिबति न कस्तव पयः प्रविश्यान्तः ।
यदि सन्मार्गसरोवर नक्रो न क्रोडमधिवसति' ॥७३॥

 राजा तस्मै लक्षद्वयं ददौ । तं च गोविन्दपण्डितं व्यापारपदाद्दुरीकृत्य त्वयापि सभायामागन्तव्यम् , परं तु केनापि दौष्ट्यं न कर्तव्यम्' इत्यु- क्त्वा ततस्तेभ्यः प्रत्येकं लक्षं दत्त्वा स्वनगरमागतः ते च यथायथं गताः।

 तवं गोविंद पंडित उन कविराजों को देखकर क्रुद्ध हो गया। उसके क्रोध का अभिप्राय जानकर दूसरा कवि वोला-  हे मार्ग के सुन्दर सरोवर, तुम किस की प्यास न बुझा देते और कौन तुम्हारे भीतर प्रविष्ट होकर जल नहीं पी लेता, यदि तुम्हारे भीतर मगर न निवास करता?  राजा ने उसे दो लाख दिये । और उस गोविंद पंडित को प्रदत्त कार्य के पद से हटाकर आज्ञा दी- 'सभा में तुम भी आना, परंतु किसी के साथ दुष्टता न करना।' और ऐसा कह कर राजा उन सब में प्रत्येक को लाख- लाख देकर अपने नगर लौट आया । वे सब कवि अपने-अपने स्थान को गये ।

ततः कदाचिद्राजा मुख्यामात्यं प्राह-