पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/४२

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भोजप्रबन्धः


  तत्पश्चात् शंकर कवि को दान मिलने के कारण उन ( विद्वानों ) को क्रुद्ध हुआ जान वह महापुरुष वोला--'शंकर कवि को बारह लाख दिये गये हैं'-आपका यह मानना उचित नहीं है । राजा का अभिप्राय तो आपने नहीं समझा । वस्तुतः शंकर-पूजन आरब्ध होने पर शंकर कवि तो एक लाख से ही पूजा गया है, किंतु उसमें स्थित और उसके नाम से प्रकाशित एकादश रुद्रों को, शंकर की अन्य प्रत्यक्ष मूर्तियाँ समझ कर, उनमें से प्रत्येक को एक एक लाख शंकर कवि को ही शंकरमूर्ति विचार कर दिया गया--राजा का यह अभिप्राय है ।' उसने सब को चमत्कृत कर दिया ।

  ततः कोऽपि राजपुरुषस्तद्विद्वत्स्वरूपं द्राग्राज्ञे निवेदयामास । राजा च स्वमभिप्रायं साक्षाद्विदितवन्तं तं महेशमिव महापुरुषं मन्यमानः सभामभ्यगात् । स च 'स्वस्ति'-इत्याह राजानम् । राजा च तमालिङ्गय प्रणम्य निजकरकमलेन तत्करकमलमवलम्ब्य सौधान्तरं गत्वा प्रोत्तुङ्गगवाक्ष उपविष्टः प्राह--'विप्र भवन्नाम्ना कान्यक्षराणि सौभाग्यावलम्बितानि। कस्य वा देशस्य भवद्विरहः सुजनान्बाधते' इति। ततः कविर्लिखति राज्ञो हस्ते 'कालिदासः' इति । राजा वाचयित्वा पादयोः पतति ।

  तदनंतर किसी राजपुरुष ने शीघ्रता पूर्वक उस विद्वान के स्वरूप के विषयमें राजा के आगे निवेदन किया। अपने अभिप्राय को ठीक-ठीक समझ- लेने वाले उसे प्रत्यक्ष महादेव मान कर राजा सभा में गये । उसने राजा से कहा- कल्याण हो ।' राजा ने उसका आलिंगन किया और प्रणाम किया और अपने करकमल से उसके करकमल को पकड़ कर प्रासाद के भीतर जा खूब ऊंचे झरोखे में बैठकर बोला-ब्राह्मण, आपके नाम ने किन अक्षरों को सौभाग्य- शाली बनाया है और किस देश के सत्पुरुषों को आपका विरह व्यथित कर रहा है ?' तब कवि ने राजा के हाथ पर लिख दिया-'कालिदास' । वाँच कर राजा पैरों पड़ गया ।

  ततस्तत्रासीनयोः कालिदासभोजराजयोरासीत्सन्ध्या। राजा-सखे, संन्ध्यां वर्णय' इत्यवादीत् । कालिदासः-