राज्ञा प्रवेशितास्ते दृष्टराजसंसदो मिलिताः सन्तः सहैव कवित्वं पठन्ति स्म । राजा तच्छुत्वोत्तरार्धे कालिदासेन कृतमिति ज्ञात्वा विप्रानाह-'येन पूर्वार्धं कारितं तन्मुखात्कवित्वं कदाचिदपि न करणी- यम्। उत्तरार्धस्य किञ्चिद्दीयते, न पूर्वाधस्य ।' इत्युक्त्वा प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ।
राजा के द्वारा सभा में बुला लिये गये वे पंडित राजसभा को देखकर एक साथ ही कविता पढ़ने लगे । राजा ने सुनकर जान लिया कि उत्तरार्द्ध कालि- दास कृत है और ब्राह्मणों से कहा-'जिसने श्लोक का पूर्वार्द्ध बनाया है, उसके मुख से फिर कभी कविता न की जानी चाहिए। उत्तरार्द्ध के लिए कुछ दिया जाता है, पूर्वार्द्ध के लिए नहीं।' ऐसा कह कर प्रत्यक्षर लाख- लाख दिया।
तेषु च दक्षिणामादाय गतेषु कालिदासं वीक्ष्य राजा प्राह--'कवे उत्तरार्धं त्वया कृतम्' इति । कविराह-
'अधरस्य मधुरिमाणं कुचकाठिन्यं दृशोश्च तैक्ष्ण्यं च । |
दक्षिणा लेकर उनके चले जाने पर कालिदास को देखकर राजा ने कहा-'कवि, उत्तरार्द्ध तुमने किया था ?' कवि ने कहा-
अधर की माधुरी, कुच की कठोरता, नेत्रों का तीखापन और काव्य की परिपक्वता अनुभवी, रसिक व्यक्ति ही समझता है । राजा च-'सुकवे, सत्यं वदासि ।
अपर्वो भाति भारत्याः काव्यामृतफले रसः । |
सञ्चिन्त्य सञ्चिन्त्य जगत्समस्तं त्रयः पदार्था हृदयं प्रविष्टाः । |
राजा ने कहा--हे सुकवि, सत्य कहते हो--
भारती [ वाणी ] के 'काव्यरूपी अमृत फल का रस अपूर्व ही होता है; उसे चबाकर खा तो सभी सकते हैं, पर उसका स्वादवेत्ता कवि ही होता है।