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भोजप्रवन्धः

 समस्त जगती को वार-वार छान डालने पर केवल तीन ही पदार्थ हृदय में प्रविष्ट हुए--गन्ने का रस, कवियों की मनीषा और मुग्धा रमणियों के कटाक्षों की उर्मिमाला।


६-कविर्लक्ष्मीधरः कुविन्दश्च

 ततः कदाचिद् द्वारपाल कः प्रणम्य भोज प्राह-राजन् , द्रविड- देशात्कोऽपि लक्ष्मीधरनामा कविर्द्वारमध्यास्ते' इति । राजा 'प्रवेशय' इत्याह । प्रविष्टमिव सूर्यमिव विभ्राजमानं चिरादप्यविदितवृत्तान्तं प्रेक्ष्य राजा विचारयामास । आह च....

'आकारमात्रविज्ञानसम्पादितमनोरथाः [१] । धन्यास्ते ये न शृण्वन्ति दीनाः क्वाप्यर्थिनां गिरः' ।। ६१ ।।

 तब फिर कभी द्वारपाल प्रणाम करके भोज से बोला--राजन्, द्रविड देश से कोई लक्ष्मीधर नाम का कवि आया है और द्वार पर उपस्थित है । राजा ने कहा--भीतर ले आओ। उसके प्रविष्ट होते ही सूर्य के तुल्य दीप्तिमान्, बहुत समय से जिसका समाचार नहीं ज्ञात हुआ हो ऐसे, उसे देखकर राजा विचारने लगा और बोला-वे मनुष्य धन्य हैं, जो कभी याचकों की दीन वाणी नहीं सुनते, आकृति देखकर ही सब समझकर याचकों के मनोरथ पूर्ण कर देते हैं।

 स चागत्य तत्र राजानं 'स्वस्ति' इत्युक्त्वा तदाज्ञयोपविष्टः प्राह- 'देव, इयं ते पण्डितमण्डिता सभा। त्वं च साक्षाद्विष्णुरसि । ततः किं

नाम पाण्डित्यं तथापि किञ्चिद्वच्मि--

भोजप्रतापं तु विधाय धात्रा शेषैनिरस्तैः परमाणुभिः किम् ।
हरेः करेऽभूत्पविरम्बरे च भानुः पयोधेरुदारे कृशानुः ॥३२॥
इति । ततस्तेन परिषञ्चमत्कृता । राजा च तस्य प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ।

 वह आकर और राजा से 'कल्याण हो' यह कह कर राजा की आज्ञा से बैठ गया और बोला-'देव, यह आपकी सभा पंडितों से सुशोभित हे और(१) आकारमात्रविज्ञानेन सम्पादिता मनोरथा येषान्ते इत्यर्थः ।

  1. (१)