पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/४९

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भोजप्रवन्धः


 आप तो साक्षात् विष्णु है । सो पंडिताई की तो बात ही क्या है--फिर भी कुछ कह रहा हूँ--

 विधाता ने राजा भोज के प्रताप का निर्माण कर क्या थोड़े से शेष रहे परमाणुओं से इंद्र के हाथ का वज्र, आकाश मण्डल में सूर्य और समुद्र के उदर में स्थित वडवाग्नि का निर्माण किया है ? ( अर्थात् भोज के प्रताप के संमुख ये तेजस्वी वस्तुएँ नगण्य हैं । )

 तो इससे राजसभा चमत्कृत हो गयी। राजा ने उसे प्रत्यक्षर लक्ष दिया।

पुनः कविराह--'देव, मया सकुटुम्बेनात्र निवासाशया समागतम् ।
क्षमी दाता गुणग्राही स्वामी पुण्येन लभ्यते ।
अनुकूलः शुचिर्दक्षः कविर्विद्वान्सुदुर्लभः ॥ ६३
इति । ततो राजा मुख्यामात्यं प्राह--'अस्मै गृहं दीयताम्' इति ।

 पुनः कवि ने कहा-'देव, मैं यहाँ बस जाने की आशा से कुटुंब सहित आया हूँ।

 क्षमा-शील, दानी और गुणों का ग्राहक स्वामी पुण्य से प्राप्त होता है, किंतु हितकारी, पवित्र, चतुर, कवि और विद्वान् स्वामी तो अति दुर्लभ है।'

तब राजाने मुख्य मंत्री से कहा--'इन्हें घर दो।'

 ततो निखिलमपि नगरं विलोक्य कमपि मूर्खममात्यो नापश्यत्, यं निरस्य विदुषे गृहं दीयते । तत्र सर्वत्र भ्रमन्कस्याचित्कुविन्दस्य गृहं वीक्ष्य कुविन्दं प्राह--'कुविन्द, गृहानिःसर। तव गृहं विद्वानेष्यति' इति।  तदनंतर समस्त नगर को देख डालने पर भी मुख्य मत्री को कोई मूर्ख दृष्टि गोचर नहीं हुआ, जिसको हटा कर विद्वान् को घर दिया जाता। तब सर्वत्र धूमते हुए किसी कपड़े बुनने वाले [ जुलाहे ] का घर देख कर मंत्री ने उससे कहा--'हे बुनकर, तुम घर छोड़ दो। तुम्हारे घर में विद्वान् आयेगा।'  ततः कुविन्दो राजभवनमासाद्य राजानं प्रणम्य प्राह - देव, भवदमात्यो मां मूर्ख कृत्वा गृहानिःसारयति, त्वं तु पश्य मूर्खः पण्डितो वेति ।