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भोजप्रवन्धः


 तव बुनकर ने कहा-  'हे स्वामी, आपको ऐसा मोह कैसे उत्पन्न हुआ ? स्मरण कीजिए-- बाल्यावस्था में पुत्रों की, सुरतकाल में स्त्रियों की, स्तुति करते समय कवियों की और युद्ध में योद्धाओं की एकवचन युक्त 'तू'-"वाली बोली ही प्रशंसनीय होती है।'  तब राजा ने सुंदर है कुर्विद, सुंदर'--ऐसा कह कर उसे प्रत्यक्षर एक लाख दिया और फिर उस बुनकर से कहा---'जा, निर्भय रह ।'

७‌- रात्रौ राज्ञो नगर--भ्रमणम्

 एवंक्रमेणातिक्रान्ते कियत्यपि काले बाणः पण्डितवरः परं राज्ञा मान्यमानोऽपि प्राक्तनकर्मतो दारिद्रयमनुभवति । एवं स्थिते नृपतिः कदाचिद्रात्रावेकाकी प्रच्छन्नवेषः स्वपुरे चरन्बाणगृहमेत्यातिष्ठत् । तदा [१] निशीथे वाणो दारिद्याद्वयाकुलतया कान्तां वक्ति-'देच, राजा कियद्वारं मम मनोरथमपूरयत् । अद्यापि पुनः प्रार्थितो दादत्येव । परन्तु निरन्तरप्रार्थनारसे मूर्खस्यापि जिह्वा जडीभवति । इत्युक्त्वा मुहूर्तार्धं मौनेन स्थितः।

 इसी प्रकार धीरे-धीरे कुछ समय व्यतीत होने पर राजा के द्वारा परम संमानित होने पर भी पंडितवर बाण पूर्व जन्म के कर्म के कारण दरिद्रता भोग रहे थे। ऐसी ही दशा मे कभी रात में अकेले वेष बदल कर अपनी नगरी में घूमते-फिरते राजा बाण के घर पहुँच रुक गये । तभी रात में दरि- द्रता के कारण व्याकुल बाण ने पत्नी से कहा-'राजा ने कितनी बार मेरा मनोरथ पूर्ण किया। आज भी फिर प्रार्थना करने पर देता ही है। किंतु निरन्तर प्रार्थना में लगे रहते मूर्ख की जीभ जड़ हो जाती है । ऐसा कह कर. आधे मुहूर्त तक चुप बैठा रहा ।

 पुनः पठति-

हर हर पुरहर परुषं क्व हलाहलफल्गु याचनावचसोः।
एकैव तव रसज्ञा तदभयरसतारतम्यज्ञा ॥६६ ।।

देवि,(१) अर्द्धरात्रे ।

  1. (१)