पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/५३

एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति
भोजप्रबन्धः

दारिद्रयस्यापरा मूर्तिर्याच्ञा न द्रविणाल्पता।
अपि कौपीनवाञ्शंभुस्तथापि परमेश्वरः ॥ १०० ।।

सेवा सुखानां व्यसनं धनानां याच्ञा गुरूणां कुनृपः प्रजानाम् ।
'प्रणष्टशीलस्य सुतः कुलानां मूलावघातः कठिनः कुठारः ॥ १०१ ॥

तत्सत्यपि दारिद्रय राज्ञो वक्तुं मया स्वयमशक्यम् ।
यच्छन्क्षणमपि जलदो वल्लभतामेति सर्वलोकस्य । .
नित्यप्रसारितकरः करोति सूर्योऽपि सन्तापम् ।। १०२ ॥

 किं च देवि, वैश्वदेवावसरे प्राप्ताः क्षुधार्ताः पश्चाद्यान्तीति तदेव मे हृदयं दुनोति ।

दारिद्यानलसन्तापः शान्तः सन्तोषवारिणा ।
याचकाशाविघातान्तदार्हः केनोपशाम्यते ।। १०३ ॥

 पुनः पढ़ने लगा--

 हे त्रिपुरारि शिव शंकर, हलाहल विष और व्यर्थ चले जाते याचना के वचन--इन दोनों में कौन अधिक तीक्ष्ण है, यह दोनों के तारतम्य-न्यूनाधिकता--को जानने वाली तुम्हारी रसना [ जीभ ] ही बता सकती है।

 हे देवि,

 दरिद्रता की दूसरी मूर्ति याचना होती है, धन की न्यूनता नहीं; शिव शंभु कौपीन धारी ही है, फिर भी परमेश्वर [ कहे जाते ] है। ' चाकरी सुखों को, व्यसन धनको, याचना गौरव को, कुनृपति प्रजा को और शीलहीन व्यक्ति का पुत्र कुल को जड़ से काटने वाला कठोर कुल्हाड़ा होता है।

 सो दरिद्रता होने पर भी मेरा राजा से स्वयम् कुछ कहना असंभव है। क्षण भर भी दान करता जलद--बादल संपूर्ण लोक का प्रिय हो जाता है और सदा कर [किरण रूपी हाथ ] फैलाये सूर्य भी संतापकारी होता है।

 परंतु हे देवि, गृहस्थ कर्म बलिवैश्वदेव के अवसर पर आये भूख से पीडित जन भी [ मेरे द्वार से ] वापस चले जाते हैं, वही मेरे हृदय को, पीडित करता है।