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भोजप्रवन्धः

 ततो राजा प्रत्यक्षरमुक्ताफललक्षं ददौ ।

 फिर घर पहुँच कर कुछ समय पश्चात् सभा में बैठा राजा कालिदास से बोला-'मित्र,

 'कवियों के मानसरूपी मन को नमस्कार, जिसके प्रतिभा-जल में तिरते है । तब कवि ने कहा (पूत्ति कर दी )-

 'चौदहों भुवन हंस के बच्चों जैसे ।' तव राजा ने प्रत्यक्षर लाख-लाख मोती दिये।

 ततः प्रविशति द्वारपालः-- देव, कोऽपिकौपीनावशेषो विद्वान्द्वारि तिष्ठति' इति । राजा-'प्रवेशय ।' ततः प्रवेशितः कविरागत्य 'स्वस्ति' इत्युक्त्यातुक्त एवोपविष्टः प्राह--

इह निवसिति मेरुः शेखरो भूधराणा-
मिह हि निहितभाराः सागराः सप्त चैव ।
इदमतुलमनन्तं भूतलं भूरिभूतो-
द्भवधरणसमर्थं स्थानमस्मद्विधानाम् ।। ११३ ।।

 तदनन्तर द्वारपाल ने प्रवेश किया ( और कहा )-'देव, कौपीन मात्र धारण किये एक विद्वान् द्वार पर प्रतीक्षा कर रहा है।' राजा ने कहा- 'भीतर ले आओ।' तब प्रवेशित कवि ने आकर कहा-'स्वस्ति' और बिना किसी के कहे ही बैठ गया और बोला-

 'इस ओर पर्वतों में श्रेष्ठ सुमेरु स्थित है और इधर ही पूर्ण भार युक्त सातों समुद्र हैं, यह अतुलनीय, अन्त हीन, प्रभूत प्राणियों की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण करने में समर्थ भूतल हम जैसे व्यक्तियों का स्थान है ।'

राजा--'महाकवे, किं ते नाम ? अभिधत्स्व ।।
राजा-'महाकवे, तुम्हारा नाम क्या है ? बताओ।'
कविः-'नामग्रहणं नोचितं पण्डितानाम् । तथापि वदामो यदि
जानासि ।

नहि स्तनन्धयी बुद्धिर्गम्भीरं गाहते वचः ।
तलं तोयनिधेर्द्रष्टुं यष्टिरस्ति न वैणवी ॥ ११४॥