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भोजप्रवन्धः


पञ्चाननस्य सुकवेर्गंजमांसैर्नृपश्रिया ।
पारणा जायते क्यापि सर्वत्रोपवासिनः ॥ १२४ ॥
वाहानां पण्डितानां च परेषामपरो जनः।
कवीन्द्राणां गजेन्द्राणां ग्राहको नृपतिः परः ।। १२५ ॥

तदनंतर कमी वृद्धावस्थाके कारण जिसके अंगों के सब जोड़ शिथिल हो चले हैं, ऐसा कोई रामेश्वर नाम का पंडित सभा में पहुंचा और वोला-

 सब स्थानों पर उपासे ( भूखे ) रहजानेवाले पंचानन सिंह की पारणा (व्रतांत भोजन ) हाथी के मांस से और कविकी पारणा (तृप्ति) राज-संपत्ति से होती है।

 घोड़ों और अन्य पंडितों का ग्राहक अन्य जन हो सकता है किन्तु कविराजों और गजराजों का ग्राहक राजा ही होता है ।

एवं हि--

सुवर्णैः पट्टचेलैश्च शोभा स्याद्वारयोषिताम् ।
पराक्रमेण दानेन राजन्ते राजनन्दनाः। १२६ ॥

इत्याकर्ण्य राजा रामेश्वर पण्डिताय सर्वाभरणान्युत्चार्य लक्षद्वयं प्रायच्छत् । ततःस्तौति कविः-

भोज त्वत्कीर्तिकान्ताया नभोमालस्थितं महत् ।
कस्तूरीतिलकं राजनगुणाकर विराजते ॥ १२७ ।।
बुधाग्रे न गुणान्ब्रूयात्साधु वेत्ति यतः स्वयम् ।
मूर्खाग्रेऽपि च न ब्रूयावुधप्रोक्तं न वेत्ति सः ।। १२८॥

तेन चमत्कृताः सर्वे ।

 ऐसे ही--स्वर्णाभूषणों और पाटांबरों से वेश्याओं की शोभा होती है। राजपुत्र तो पराक्रम और दान से सुशोभित होते हैं। यह सुनकर राजाने रामेश्वर पंडित को उतार कर सारे आभूपण और दो लाख दिये ।

 तव कवि ने स्तुति की--हे गुणों के भांडार भोजराज, आपकी कीर्तिरूपी सुंदरी पत्नी का विशाल तिलक आकाशरूपी माथे पर स्थित हो सुशोभित हो रहा है अर्थात् आपका यश नभोमंडल तक फैला है ।