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भोजप्रबन्धः

 बुद्धिमान के संमुख स्वगुण कीर्तन उचित नहीं होता, क्यों कि वह तो स्वयं भली भांति जानता ही है । मूर्ख के आगे भी गुणकथन उचित नहीं क्यों कि वह बुद्धिमान का कहा समझेगा ही नहीं।

 उसने सब को चमत्कृत कर दिया ।

रामेश्वरकविः--

'ख्यातिं गमयति सुजनः सुकविर्विदधाति केवलं काव्यम् ।
पुष्णाति कमलमम्भो लक्ष्म्या तु रविर्नियोजयति' ॥ १२६ ॥

ततस्तुष्टो राजा प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ ।

 कवि रामेश्वर ने सुनाया--

 सुकवि तो केवल काव्य रचता है, सज्जन उससे प्रसिद्धि प्राप्त करता है । जल कमल का केवल पोषण करता है परंतु सूर्य उसे लक्ष्मी (शोभा, विकास) से युक्त करता है।

 तब संतुष्ट राजा ने प्रत्यक्षर एक लाख मुद्राएँ दी।

राजेन्द्रं कविः प्राह-

'कवित्वं न शृणोत्येव कृपणः कीर्तिवर्जितः ।
नपुंसकः किं कुरुते पुरःस्थितमृगीदृशा' ॥ १३० ।।

 कविराज भोज से बोला-

 यशोहीन कृपण, काव्य सुनता ही नहीं, नपुंसक पुरुप संमुख बैठी मृगनयना के साथ क्या. करता है ?

सीता प्राह-

'हता देवेन कवयो वराकास्ते गजा अपि ।
शोभा न जायते तेषां मण्डलेन्द्रगृहं विना' ॥ १३१ ।।

सीता ने कहा--

 भाग्य ने उन बेचारे कवियों और हाथियों को भी मार डाला ( जिन्हे राजाश्रय नहीं मिला) । मंडलाधीश के घर को छोड़ उनकी शोभा नहीं होती।

कालिदासः--

'अदातृमानसं क्यापि न स्पृशन्ति कवेर्गिरः।
दुःखायैवातिवृद्धस्य विलासास्तरुणीकृताः ॥ १३२ ।।