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भोजप्रवन्धः

कालिदास को न आया देख राजा ने उसे बुला लाने के लिए अपने सेवकों में से एक को वेश्या के घर भेजा।

 स च गत्वा कालिदासं नत्वा प्राह--'कवीन्द्र, त्वामाकारयति भोजनरेन्द्रः' इति । ततः कविर्व्य॑चिन्तयत्-'गतेऽह्नि नृपेणावमा- नितोऽहमद्य प्रातरेवाकारणे किं कारणमिति ।

यं यं नृपोऽनुरागेण सम्मानयति संसदि ।
तस्य तस्योत्सारणाय यतन्ते राजवल्लभाः ॥ १३६ ॥

 वह पहुँच कर और कालिदास को प्रणाम करके बोला--'कविराज, राजा भोज आपको बुलाते हैं ।' तब कवि ने विचारा--'कल राजा ने मुझे अवमानित किया था, आज प्रातः काल ही बुलाने में क्या कारण है ?

 राजा सभा में प्रेम पूर्वक जिस-जिसका संमान करता है, राजा के प्रेम - पात्र व्यक्ति उसी को उखाड़ने का प्रयत्न करते हैं ।

 किन्तु विशेषतो राज्ञान्वहं मान्यमाने मयि मायाविनो मत्सराद्वैरं बोधयन्ति ।

अविवेकमतिर्नृपतिमन्त्री गुणवत्सु वक्रितग्रीवः ।
यत्र खलाश्च प्रवलास्तत्र कथं सज्जनावसरः ॥ १४०।।

 इति विचारयन्सभामागच्छत् ।

 परंतु, प्रतिदिन राजा के द्वारा मेरा विशेष रूप से सम्मान होने पर मायावी लोग मेरे साथ ईर्ष्या और वैर मानते हैं।

 जहाँ अविवेकी ( कर्तव्य-बोध-रहित ) राजा हो, गुणवानों पर टेढ़ी गरदन किये रहनेवाला (अप्रसन्न ) मंत्री हो और जहाँ दुष्ट जन बलवान् 'पड़ते हों, वहाँ भले व्यक्तियों को अवसर कहाँ ?

 ऐसा विचार करता हुआ सभा में पहुँचा।

 ततो दूरे समायान्तं वीक्ष्य सानन्दमासनादुत्थाय 'सुकवे, मत्प्रिय- तम, अद्य कथं विलम्बः क्रियते' इति भाषमाणः पञ्चषट्पदानि सम्मुखो गच्छति ततो निखिलाऽपि सभा स्वासनादुत्थिता। सर्व सभासदश्व चमत्कृताः । वैरिणश्चास्य विच्छायवदना बभूवुः । ततो राजा निजकर-