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भाजप्रबन्धः

और फिर उन्होंने उसे उपाय बताया-हे सुभगे, यह कालिदास हमारे कर को गला रहता है। हमने कोई कला के क्षेत्र में इसके समान नहीं है। सो बच्ची, तुम ऐसा करो कि राजा इसे इस देश से दूसरे देश को निकाल दे।' बाजी बोली--आप लोगों के हार पाकर मेरे द्वारा आपका काम हो सकता है। सो पहिले मुझे हार दीजिए। तदनन्तर उनके द्वारा दिया हार पाकर वह पानवाली दासी विचार करने लगी कि--'विद्वानों द्वारा असाध्य क्या है ? (विधान् क्या नहीं कर सकते ? )

 ततः समतिनामत्सु कतिपयवासरेषु दैवादेकाकिनि प्रसुते राजनि चरणसंवाहनादिसेवामस्य विधाय तत्रैव कपटेन नेत्रे निमील्य सुप्ता। ततश्चरणचलनेन राजानमीवज्जागरूकं सम्यग्ज्ञात्वा प्राह--'सखि मदन- मालिनि, सादुरात्मा कालिदासो दासीवेषेणान्तः पुरं प्राप्य लीलादेव्या सह रमते।

 तदनन्तर कुछ दिन बीतने पर भाग्य वश जब राजा अकेला सो गया तो राजा के पैर दबाने आदि सेवा करके तांबुल वाहिका दासी वहीं कपट पूर्वक नेत्र बन्द करके ( नींद का बहाना करती ) लेट गयी। तत्पत्श्चात् पैरों के इधर उधर डुलाने से राजा को थोड़ा जागा हुझा भली भांति समझ कर (सोते सोते जैसे ) कहने लगी-सखी मदनमालिनी, वह दुष्टात्मा कालिदास दासी के वेष में रनिवास में प्रविष्ट होकर लीला देवी के साथ रमण करता है।'

 राजा तच्छृत्वोत्थाय प्राह-तरङ्गवति, कि जागर्षि' इति । सा च निद्राव्याकुलेव न शृणोति । राजा च तस्या अपध्वनिं श्रुत्वा व्यचिन्तयत्-'इयं तरङ्गवती निद्रायां स्वप्नवशंगतावासनावशात्देव्याःदुश्चरितं प्राह । स च स्त्रीवेषेणान्तपुरमागच्छन्तीत्येतदपि सन्माव्यते । को नाम स्त्रीचरितं वेद' इति ।'

 राजा यह सुन उठ कर बोला-'तरङ्गवती, क्या जाग रही है ?' उसने- जैसे कि वह नींद में बेसुध हो, ऐसी स्थिति प्रकट करते हुए-सुना ही नहीं। राजा ने उनकी खर्राहट सुनकर सोचा-'नींद में सपना देखते हुए अववेतना के वश इस तरंगवती ने रानी के दुशाचरित्र को कह दिया है । वह (कालिदास)