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पुटमेतत् सुपुष्टितम्

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‘फल' के प्रति हास्यास्पद 'वामन की उद्वाहुता' है और उसका दुष्फल भोगने को उसे तैयार रहना है, फिर भी-मगर फिर भी। भोगने दो 'मन्द' को "कवि यशः प्रार्थी' बनने के लोभ का कुपरिणाम ।

 'भोज-प्रबंध' के अनेक हिन्दी-रूप हैं; ऐसी स्थिति में ’विद्योतिनी' का उद्योगी इस उद्यम को अपना देवमंदिर की देहली पर एक वराटी चढाने का अधिकार मानता है । और यह अधिकार उसे मिलना ही चाहिए 1 कविवर मैथिलीशरण के शब्दों में-

'जय देवमंदिर देहली,
समभाव से जिस पर चढ़ी--
नृप हेम मुद्रा और रकवराटिका ।

२६-ग, हीरापुरी, गोरखपुर,

विश्वविद्यालय परिसरः
-देवर्षि सनाढ्य
 

वि० सं० २०३५