रानी उसे सुन अर्थ के स्वरूप को जानने वाली सरस्वती के समान उसका अर्थ समझ कर किंचित् मुस्कुरा दी । राजा ने यह देख कर सोचा-'यह पहिले से कालिदास से प्रेम करती है; इसीसे इस । कालिदास ) ने इस ( रानी) के निकट रहने पर भी इस प्रकार कह डाला। और यह मुस्कुरा दी । स्त्री चरित्र कौन जानता है ?
घोड़े की कुदान, वासव (धनिष्ठा नक्षत्र ) की गरज, स्त्रियों का चित्त, पुरुष का भाग्य, अवृष्टि और अतिवृष्टि---इनको देव नहीं जानता, मनुष्य का तो गिनती क्या ?
किन्त्वयं ब्राह्मणो दारुणापराधित्वेऽपि न हन्तव्य इति विशेषेण सरस्वत्याः पुरुषावतारः' इति विचार्य कालिदासं प्राह--'कवे, सर्वथा स्मद्देशे न स्थातव्यम् । किं बहुनोक्तेन । प्रतिवाक्यं किमपि न वक्तव्यम् ।
परन्तु कठोर अपराधी होने पर भी इस ब्राह्मण; विशेषतया सरस्वती के पुरुषावतार की हत्या उचित नहीं है, ऐसा विचार कर राजा ने कालिदास से कहा-'कवि, हमारे देश में एक क्षण मत ठहरो। अधिक कहने से क्या । कोई प्रत्युत्तर मत दो।
ततः कालिदासोऽपि वेगेनोत्थाय वेश्यागृहमेत्य तां प्रत्याह--'प्रिये, अनुज्ञां देहि । मयि भोजः कुपितः स्वदेशेनस्थातव्यमित्युवाच । अहह-
अघटितघटितं घटयति सुघटितघटितालि दुर्घटीकुरुते । |
किं च किमपि विद्वद्वृन्दचेष्टितमेवेति प्रतिभाति ।
तत्पश्चात् कालिदास भी तुरन्त उठ कर वेश्या के घर पहुँच उससे बोला- 'प्रिये, अनुमति दो । क्रुद्ध होकर भोज ने स्वदेश में न रहने की आज्ञा दी है। अहा-
जो घटना न हो सके. उसे घटा देता है और जो सरलता से घट सकती है, उसे दुर्घट बना देता है । जिन्हें पुरुष सोचंता भी नहीं, विधाता उन्हें घटित कर देता है।
किंतु यह विद्वन्मंडली ने ही कुछ किया है-ऐसा प्रतीत होता है ।