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भोजप्रबन्धः

गच्छन्ति ब्राह्मणा इव ।' ततः सा समेत्य सर्वानपश्यत् । उपेत्य च कालिदासं प्राह--

एकेन राजहंसेन या शोभा सरसोऽभवत् ।
न सा बकसहस्रेण परितस्तीरवासिना ।। १५२ ।।

 सर्वे च बाणमयूरप्रमुखाःपलायन्ते नात्र संशयः' इति । कालिदासः- 'प्रिये, वेगेन वासांसि भवनादानय, यथा पलायमानान्विप्रान्रक्षामि ।

किं पौरुषं रक्षति यो न [१] वार्तान् किं वा धनं नार्थिजनाय यत्स्यात् । सा किंक्रिया यान [२] हितानुबद्धा किं जीवितं साधुविरोधि यद्वै ॥१५३॥

 तब कालिदास रात में वहीं विलासवती की गृहवाटिका में रह रहा था, उसने रास्ते में जाते उन सब कवियों की वातचीत सुनकर वेश्या की दासी को भेजा--'प्रिये, ये कौन ब्राह्मण जैसे जा रहे हैं ?' तब उसने जाकर सबको देखा और कालिदास के पास पहुँचकर कहा-

 एक राजहंस से सरोवर की जैसी शोभा होती है वैसी चारों ओर तीर पर एकत्र सहस्रों बगुलों से नहीं।

 सब बाण, मयूर आदि कवि भागे जा रहे हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। कालिदास ने कहा-'प्रिये, शीघ्रतया घर से वस्त्र लेकर आओ कि इन भागे जाते विप्रों की रक्षा कर सकूँ।

 जो दुःखियों की रक्षा न करे, वह पौरुष कैसा और जो याचकों के काम न आ सके, वह धन कैसा ? वह कर्म भी क्या, जिससे हित न हो सके और उस जीवन से क्या लाभ, जिससे सज्जन-विरोध हो ?'

 ततः स कालिदासश्चारणवेषं विधाय खड़गमुद्वहन्क्रोशार्धमुत्तरं गत्वा तेषामभिमुखमागत्य सर्वान्निरूप्य 'जय' इत्याशीर्वचनमुदीर्य पप्रच्छ चार- णभाषया-'अहो विद्यावारिधयः, भोजसभायां सम्प्राप्तमहत्त्वातिशयाः, बृहस्पतय इव सम्भूय कुत्र जिगमिषवो भवन्तः । कच्चित्कुशल वः । राजा च कुशली। अस्माभिः काशीदेशादागम्यते भोजदर्शनाय वित्तस्पृहया च ।

 तब कालिदास ने चारण का वेष बना, खड्ग-धारण कर आधे कोस उत्तर जा, उनके संमुख पहुँच कर सबको देखा और 'जय' यह आशीर्वचन


  1. वा आर्तान् इति च्छेदः।
  2. या हितं नानुबध्नाति ।