गते च विद्वन्मण्डले शनैर्दे्वारपालायादिष्टं राज्ञा-'यदि केचिद्विज- न्मान आयास्यन्ति तदा गृहमध्यमानेतव्याः।'
राजा ने यथोचित अभिप्राय जान कर सोचा--'निश्चय ही कालिदास एक दिन की पहुँच के स्थान पर है। उपायों से सब सिद्ध हो सकता है।' तत्पश्चात् बाण को पंद्रह लाख के स्वर्ण भूषण दिये और संतोष प्रकट करते हुए विद्वत्-समाज को अपने-अपने घर भेज दिया। विद्वानों की मंडली के चले जाने पर धीरे से राजा ने द्वारपाल को आदेश दिया--'यदि कोई ब्राह्मण आये तो उसे महल में ले आना ।'
ततः सर्वमपि वित्तमादाय स्वगृहं गते वाणे केचित्पण्डिता आहुः- 'अहो, वाणेनानुचितं व्यवधायि । यद सावप्यस्माभिः सह नगरान्नि- ष्कान्तोऽपि सर्वमेव धनं गृहीतवान् । सर्वथा भोजस्य बाणस्वरूप ज्ञापयिष्यामः । यथा कोऽपि नान्यायं विधत्ते विद्वत्सु ।' ततस्ते राजानमासाद्य ददृशुः । राजा तान्प्राह-एतत्स्वरूपं ज्ञातमेव । भवद्भिर्यथार्थतया वाच्यम् ।' ततस्तैः सर्वमेव निवेदितम् ।
तत्पश्चात् समग्र धन लेकर बाण के अपने घर चले जाने पर कुछ पंडित बोले--'अरे, बाण ने अनुचित किया कि नगर से तो हमारे साथ ही निकला पर समग्र घन स्वयं ले लिया । भोज को बाण का सच्चा रूप हम ज्ञापित करेंगे, जिससे कि फिर कोई विद्वानों के साथ अन्याय न करे।' फिर वे राजा के पास पहुंचे और निवेदन किया । राजा ने उनसे कहा-यह तो जानता ही था, आप ठीक-ठीक सब बता दीजिए ।' सो उन्होंने सब कुछ बता दिया।
ततो राजाविचारितवान्-'सर्वथाकालिदासश्चारणवेषेण मद्भया- न्मदीयनगरमध्य आस्ते । ततश्चाङ्गरक्षकानादिदेश-'अहो, पलाय्यन्तां तुरङ्गाः ।'
ततः क्रीडोद्यानप्रयाणे पटहध्वनिरभवत्-'अहो, इदानीं राजा देव- पूजाव्यग्र इति शुश्रुमः । पुनरिदानीं क्रीडोद्यानं गमिष्यति' इति व्यकुलाः सर्वे भटाः सम्भूय पश्चाद्यान्ति । ततो राजा तैर्द्विद्भिः सहाश्वमारुह्य रात्रौ यत्र चारणप्रसङ्गः समजनि, तत्प्रदेशं प्राप्तः।
तव राजा ने विचारा--'निश्चय ही कालिदास मेरे भय के कारण चारण के वेष में नगर में ही हैं ।' और फिर उसने अङ्ग रक्षकों को आज्ञा दी--