ततो वेश्यागृहं प्रविश्य भोजः कालिदासं दृष्ट्वा सम्भ्रममाश्लिष्य पादयोः पतति । स राजा पठति च-
'गच्छतस्तिष्टनो वापि जाग्रतः स्वपतोऽपि वा । |
कालिदासस्तच्छुत्वा [१]१व्रीडावनताननास्तिष्टति । राजा च. कालिदासमुखमुन्नमय्याह-
'कालिदास कलावास दासवाञ्चालितो यदिग । |
धन्यां विलासिनी मन्ये कालिदासो यदेतया। |
तत्पश्चात् भोज वेश्या के घर में प्रविष्ट हो कालिदास को देखा और संभ्रमः के साथ के घर में प्रविष्ट हो कालिदास के पैरों में गिरा और कहा- 'चलते अथवा वैठते, जागते अथवा सोते हे कविराज, मेरा मन कभी तुमसे वियुक्त न हो।
यह सुन कर कालिदास ने लाज से मुंह नीचा कर लिया। राजा ने. कालिदास का मुख ऊँचा करके कहा-
'हे कला के आवास स्थान कालिदास, यदि दास के समान राज मार्ग में तुमने चला दिया तो इसमें औरों को लज्जा की क्या बात है ?
मैं विलासनी को धन्य मानता हूँ कि इसने अपने गुणों से कालिदास को पिंजरे में पक्षी के समान निबद्ध कर लिया।'
राजा नेत्रयोहर्षाश्रु मार्जयति कराभ्यां कालिदासस्य । ततस्तत्प्राप्तिप्रसन्नो राजा ब्राह्मणेभ्यः प्रत्येकं लक्षं ददौ । निजतुरगे च कालिदासमारोप्य सपरिवारो निजगृहं ययौ।
राजा ने कालिदास के नेत्रों से प्रसन्नता के आँसू पोंछे और फिर उसके मिल जाने से प्रसन्न हो ब्राह्मणों को एक-एक लाख दिये । ओर अपने घोड़े पर कालिदास को बैठा कर परिवार सहित अपने महलों को लौट गया।
- ↑ बीडया-लज्जया, अवनतं मुखं यस्य स इति विग्रहः । .