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भोजप्रबन्धः

 ततो राजा गजानवलोकनाय बहिरगात् । ततस्तद्विद्वत्कुटुम्वं वीक्ष्य चोलपण्डितो राज्ञः प्रियोऽहमिति गर्व दधार, । यन्मया राजभवनमध्ये गम्यते । विद्वत्कुटुम्बं तु द्वारपालज्ञापितमपिबहिरास्ते । तदा राजा तच्चेतसि गर्व विदित्वा चोलपण्डितं सौधाङ्गणानिःसारितवान्।

 तब राजा हाथियों का निरीक्षण करने के लिए बाहर गया । तो उस विद्वान् के कुटुम्ब को देख चोल पंडित को यह अभिमान हुआ कि मैं राजा का प्यारा हूँ कि मैं राज भवन के मध्य हूँ और विद्वान् का कुटुम्ब तो द्वार पाल के द्वारा सूचित किया जाने पर भी बाहर ही है। तबराजा ने उसके चित्त में गर्व उत्पन्न हुआ जान चोल पंडित को प्रासाद के आँगन से निकलवा दिया ।

 काशीदेवशवासी कोऽपि तण्डुलदेवनामा राज्ञे 'स्वस्ति' इत्युक्त्वातिष्ठत् । राजा च तं पप्रच्छ-'सुमते, कुत्र निवासः।' तण्डुलदेवः--

वर्तते यत्र सा वाणी कृपाणीरिक्तशाखिनः ।
श्रीमन्मालवभूपाल तत्र देशे वसाम्यहम्' ।। १६४ ॥

 तुष्टो राजा तस्मै गजेन्द्रसप्तकं ददौ। काशी देश का रहने वाला एक तंडुल देवनाम का कवि राजा के प्रति 'स्वस्ति' कह कर उपस्थित हुआ । राजा ने उससे पूछा-'हे सुबुद्धि, तुम्हारा निवास कहाँ है ? तंडुल देव-'हे मालव घरणी के पालक, मैं उस देश की वासी हूँ, जहाँ कृपाण के द्वारा शाखाओं का उन्मूलन होने पर भी वाणी विद्यमान रहती है । संतुष्ट हो राजा ने उसे सात हाथी दिये । ततः कोऽपि विद्वानागत्य प्राह--

'तपसः सम्पदः प्राप्यास्तत्तपोऽपि न विद्यते ।
येन त्वं भोज कल्पद्रुदृग्गोचरमुपैष्यसि ॥ १६५ ।।

 तस्मै राजा दशगजेन्द्रान्ददौ।

 तदनन्तर एक विद्वान् ने आकर कहा--

 'तप से संपत्तियाँ प्राप्त होती है, किन्तु मेरे पास वह तप भी नहीं हैं, जिससे कि कल्पवृक्ष के समान भोजराज, आप दृष्टि गोचर हों।'

 राजा ने उसे दस हाथी दे दिये।

 ततः कश्चिद्ब्राह्मणपुत्रो भूम्भारवं कुर्वाणोऽभ्येति । ततः सर्वे सम्भ्रा- न्ताः कथं भूम्भारवं करोषि' इति । राज्ञा स्वदृग्गोचरमानीतः पृष्टः । स प्राह-