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भोजप्रबन्धः

 ततः सुकुमारमनोज्ञनिखिलाङ्गावयवालङ्कृतांशृङ्गाररसोपजातमूर्तिमेव चम्पकलतामिव लावण्यगात्रयष्टिं विप्रस्नुषां वीक्ष्य 'नूनं भारत्याः काऽपि लीलाकृतिरियम्' इति चेतसि नमस्कृत्य राजा प्राह-'मातः त्व- मप्याशिष वद । विप्रस्नुषा-'देव, शृणु।

धनुः पौष्पं मौर्वी मधुकरमयी चञ्चलदृशां
 दृशां कोणो बाणः सुहृदपि जडात्मा हिमकरः। .
स्वयं चैवोऽ []नङ्गः सकलभुवनं व्याकुलयति
 क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे ॥ १७१ ।।

 चमत्कृतो राजा लीलादेवीभूषणानि सर्वाण्यादाय तस्यै ददौ। अन- र्व्यांश्च सुवर्णमौक्तिकवैडूर्यप्रवालांश्च प्रददौ ।

 तदनन्तर सुकुमार और मनोहर समस्त अंगों से सुशोभित, मानो शृंगार रस की उपजात मूर्ति के सदृश चंपक की लता के समान सुन्दर देह- यष्टि धारिणी ब्राह्मण की पुत्र वधू को देख कर और निश्चय ही यह वाग्देवी की कोई लीलामयी रचना हैं ऐसा मान मन ही मन नमस्कार करकेउससे राजा ने कहा--'माँ, तुम भी कुछ आशीर्वचन स्वल्प कहो।' ब्राह्मण-पुत्र-वधू ने कहा-

 'महाराज, सुनिए-

 फूलों का धनु, प्रत्यंचा मधुकर श्रेणी की,

 चपल नयनिओं के कटाक्ष के बाण, जडात्मा चंद्र मित्र है,

 स्वयम् अकेला अंगहीन यह काम सकल भुवन को है व्याकुल कर देता,

 बड़े जनों की क्रिया सिद्धि होती पौरुष से, न कि साधन से ।

 चमत्कृत राजा ने लीला देवी के सब आभूपण लेकर उसे दे डाले और

तदनन्तर सोना, मोती, वैदूर्य (लहसुनिया ) और मूँगे भी दिये ।

 ततः कदाचित्सीमन्तनामा कविः प्राह-~

'पन्थाः संहर दीर्घतां त्यज निज तेजः कठोरं रवे
 श्रीमन्विन्ध्यगिरे प्रसीद सदयं सद्यः समीपे भव ।
इत्थं दूरपलायनश्रमवतीं दृष्ट्वा निजप्रेयसी
 श्रीमन्मोज तव द्विषः प्रतिदिनं जल्पन्तिमूर्छन्ति च ॥१७२।।


  1. देहरहित इति यावत् ।