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भोजप्रवन्धः

 तत्पश्चात् कभी सीमंत नामक कवि ने कहा-~.

 'हे मार्ग, तुम लम्बाई को त्याग दो, हे सूर्य, तुम अपने कठोर तेज को

छोड़ दो, हे श्रीमान् विंध्याचल, तुम प्रसन्न होकर दयापूर्वक शीघ्र ही निकट हो जाओ' हे राजा भोज, आपके शत्रु (डर कर ) दूर भागने के कारण थकी अपनी प्रेयसी को देखकर प्रतिदिन ऐसी वकवास करते हैं और मूच्छित हो जाते हैं।'

 तस्मिन्नेव क्षणे कश्चित्सुवर्णकारः प्रान्तेषु पद्मरागमणिमण्डितं सुवर्णभाजनमादाय राज्ञः पुरो मुमोच। ततो राजा सीमन्तकविं प्राह- 'सुकवे, इदं भाजनं कामपि श्रियं दर्शयति । ततः कविराह---

'धारेश त्वत्प्रतापेन पराभूत[]स्त्विषापतिः ।
सुवर्णपात्रव्याजेन देव त्वामेव सेवते ।। १७३ ।।

 ततस्तुष्टो राजा तदेव पात्रं मुक्ताफलैरापूर्य प्रादात् ।

 उसी क्षण एक सुनार ने चारों ओर पद्म राग मणि-जड़ा सोने का एक

पात्र लाकर राजा के सम्मुख रखा। तब राजा ने सीमन्त कवि से कहा 'हे सुकवे, देखो यह बरतन कितना सुन्दर है ।' तो कवि ने कहा--

 हे धारा के स्वामी, आपके प्रताप के सम्मुख हारा सूर्य सुवर्ण पात्र के मिस हे देव, आपकी सेवा कर रहा है।'

 तो संतुष्ट होकर राजा ने उसी पात्र को मोतियों से भर कर उसे दे दिया।

 कदाचिद्राजा मृगया रसेन पुरः पलायमानं वराहं दष्ट्वा स्वयमेकाकितया दूरं वनान्तमासादितवान् । तत्र कञ्चन द्विजवरमवलोक्य प्राह- 'द्विज, कुत्र गन्तासि । द्विजः--'धारानगरम् ।' भोजः-'किमर्थम् ।' द्विजः-- भोजं द्रष्टुं द्रविणेच्छया। स पण्डिताय दत्ते । अह्ममपि मूर्ख न याचे। भोजः-विप्र, तर्हि त्वं विद्वान्कविर्वा । . द्विजः-~महाभाग, कविरहम् । , ,


  1. सूर्यः।