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भोजप्रवन्धः

भोजः तर्हि किमपि पठ। द्विजः--भोजं विना मत्पद सरणिं न कोऽपि जानाति । भोजः ममाप्यमरवाणीपरिज्ञानमस्ति । राजा च मयि स्निह्यति । त्वद्गुणं च श्रावयिष्यामि । किमपि कलाकौशलं दशय ।

विप्रः-किं वर्णयामि। राजा--कलमानेतान्वर्णय ।

विप्रः--

'कलमाः पाकविनम्रा मूलतलाव्रातसुरभिकह्वाराः ।
- पवनाकस्पितशिरसः प्रायः कुर्वन्ति परिमलश्लाघाम्' ।। १७४ ।।

राजा तस्मै सर्वाभरणान्युत्तार्य ददौ।

 एक वार आखेट-रस में मग्न राजा भागते सूअर को देख कर स्वयम् अकेला ( उसका पीछा करता) दूर वन में जा पहुंचा। वहाँ एक श्रेष्ठ ब्राह्मण को देख कर बोला--

 द्विज, कहाँ जा रहे हो?

 द्विज--धारानगर ।

 राजा--किसलिए?

 द्विज-धन पाने की इच्छा से भोज के दर्शनार्थ । वह पंडित को देता है और मैं भी मूर्ख से याचना नहीं करता ।

 भोज--ब्राह्मण, तो तुम विद्वान् हो अथवा कवि हो ।

 द्विज--हे महाभाग, मैं कवि हूँ।

 भोज-तो कुछ पढ़ो।

 द्विज-भोज के अतिरिक्त मेरी कविता का अर्थ कोई नहीं समझ सकता ।

 राजा-मुझे भी देववाणी का ज्ञान है और मुझसे राजा स्नेह करता है । मैं तुम्हारे गुण उसे सुनाऊँगा । कुछ अपनी कला का कौशल दिखाओ।

 द्विज-क्या वर्णन करूँ।

 राजा--इन धानों का वर्णन करो ।

 द्विज-,-पकजाने से झुके हुए धानों की जड़ में शुष्क कमल दल की सुगंध है । करते हैं श्लाघा परिमल की मंद पवन में झूम-झूम कर ।

 राजा ने उसे सब आभूपण उतार कर दे दिये ।