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भोजप्रवन्धः


पहुँच कर वोला--'राजा ने मुझे तीन लाख देने को कहा है।' वह फिर हँसने लगा।

 ततः क्रुद्धो विप्रः पुनरेत्याह-'देव, स नार्पयत्येव ।

राजन्कनकधाराभिस्त्वयि सर्वत्र वर्षति ।
अभाग्यच्छत्रसंछन्ने मयि नायान्ति बिन्दवः ।। १८६ ॥
त्वयि वर्पति पर्जन्ये सर्वे पल्लविता द्रुमा।
अस्माकमर्कवृक्षाणां पूर्वपत्रेषु संशयः ।। १८७ ॥
एकमस्य परमेकमुद्यमं निस्त्रपत्वमपरस्य वस्तुनः ।
नित्यमुष्णमहसा निरस्यते नित्यमन्धतमसंप्रधावति' ॥१८८॥

 तब कुछ क्रुद्ध ब्राह्मण फिर राजा के पास जाकर बोला--'महाराज, वह देता ही नहीं। राजन्, आप सर्वत्र स्वर्ण धाराओं की वर्षा कर रहे हैं, परन्तु अभाग्य के छाते से ढके मुझपर बूंदें गिरती ही नहीं।

 तुझ मेध के बरसने पर सर्व वृक्षों पर नये पत्ते आगए पर हमारे मदार के 'पुराने पत्ते ही संदेहास्पद हो गये।

 एक ही-बस एक ही परम उद्योग है, दूसरे के प्रति निर्लज्जता घारण कर लेना । प्रतिदिन सूर्य द्वारा भगा दिया जाता है, परन्तु घोर अंधकार प्रतिदिन ही फिर दौड़ा आता है।'

 ततो राजा प्राह-

'क्रोधं मा कुरु मद्वाक्याद्गत्वा कोशाधिकारिणम् ।
लक्षत्रयं गजेन्द्राश्च दश ग्राह्यास्त्वया द्विज' ॥ १८६ ।।

ततस्त्वगरक्षकं प्रेषयति । ततः कोशाधिकारी धर्मपत्रे लिखति-

'लक्षं लक्षं पुनर्लक्षं मत्ताश्च दश दन्तिनः ।
दत्ता भोजेन तुष्टेन जानधनप्रभाषणात्' ॥ १६० ।।

 तब राजा ने कहा-

 'हे ब्राह्मण, क्रोध मत करो, कोशाधिकारी के पास जाकर मेरी आज्ञा से तीन लाख मुद्राएँ और दस हाथी ले लो।'

 और अंगरक्षक को (ब्राह्मण के साथ ) भेज दिया। तब धर्म पत्र पर कोशाधिकारी ने लिखा-